🌹 आगमवाणी नवकार मंत्र (सूत्र)🌹
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🌷 पंच परमेष्ठि में प्रथम स्थान अरिहंत परमात्मा का है। आज से अरिहंत परमात्मा का वर्णन लिखता हूं। कृपया ध्यानपूर्वक पढ़ें और अरिहंत परमात्मा को पहचाने।
✍️ जो जीव अपने वर्तमान भव से तीन भव पहले निम्न 20 बोलों में से किसी एक बोल का या इससे अधिक बोलों की यथोचित विशिष्ट आराधना करता है, वह आने वाले तीसरे भाव में अरिहंत पद को प्राप्त करता है।
१) अरिहंत, २) सिद्ध, ३) प्रवचन (भगवान का उपदेश), ४) गुरु, ५) स्थविर (वृद्ध मुनि), ६) बहुसूत्री – पंडित, ७) तपस्वी, इन सातों का गुणानुवाद करने से, ८) बार-बार ज्ञान में उपयोग लगाने से, ९) निर्मल समकित का पालन करने से, १०) गुरु आदि पूज्य जनों का आदर (विनय) करने से, ११) निरंतर षड् आवश्यक अर्थात प्रतिक्रमण का अनुष्ठान करने से, १२) ब्रम्हचर्य अथवा उत्तर गुणों का, व्रतों का, मूल गुणों का तथा प्रत्याख्यान का अतिचार रहित पालन करने से, १३) सदैव वैराग्य भाव रखने से, १४) बाह्य और अभ्यांतर तप करने से, १५) सुपात्र को दान देने, १६) गुरु, रोगी, तपस्वी, वृद्ध तथा नव दीक्षित मुनि की सेवा करने से, १७) क्षमा भाव रखने से, १८) नित्य नए ज्ञान का अभ्यास करने से, १९) विनय पूर्वक जिनेश्वर भगवान के वचनों पर श्रद्धा करने से और २०) तन-मन-धन से जिन शासन की प्रभावना करने से।
✍️ जो साधक उपरोक्त बीस बोलों में से किसी एक या उससे ज्यादा बोलों की विशिष्ट आराधना करता है, वह प्राणी तीर्थंकर नाम गोत्र का उपार्जन करता है।
नवकार मंत्र (सूत्र) क्यों पढ़ते हैं ? इसका ध्यान क्यों करते हैं ?
✒️ संसार में हो या साधना के मार्ग में हो प्रत्येक कार्य का प्रारंभ मंगलाचरण से होता है। प्रत्येक धर्म और संप्रदाय की विधि अलग-अलग है। जैन धर्मावलंबी अपने प्रत्येक कार्य का प्रारंभ णमोकार मंत्र से करते हैं।
💐 णमोकार मंत्र का क्या महत्व है?
✒️ यह अनादि कालीन मंत्र – सूत्र है। इसमें किसी व्यक्ति विशेष की पूजा का उपदेश नहीं है। संसार का यह एकमात्र सूत्र है जिसमें महापुरुषों के गुणों का वर्णन है और उस गुण के अनुसार ही उनकी पूजा, अर्चना, वंदना की जाती है।
✒️ इसका स्मरण अनादि काल से हमारे पूर्वज करते आए हैं और उसका हम भी अनुसरण कर रहे हैं।
✒️ इस सूत्र में गुणों का वर्णन है। ऐसे गुण हमारे जीवन में भी आवे ऐसा हमारा चिंतन, मनन और प्रयास होता है। इसके कारण हमारे पूर्व संचित कर्मों का भी क्षय होता है।
✒️ मैं इस अभूतपूर्व सूत्र को समझाने के योग्य तो नहीं हूं, फिर भी मैं एक प्रयास कर रहा हूं कि आप तक इसका क्या महत्व है पहुंचे। मेरे द्वारा लिखने में कोई भूल हो तुम मुझे अवश्य बताएं ताकि मैं उसमें सुधार कर सकूं। मेरे लिखने में किसी प्रकार की अविनय आशातना हुई हो तो मुझे क्षमा करें।
👏 इसमें प्रथम दो पद भगवान के हैं और अंतिम तीन पद गुरु भगवंत के हैं। इनका शुद्ध भाव से स्मरण करने से हमारे कर्मों की निर्जरा होती है और पुण्य का बंध होता है।
🌷 हमारे भगवान अर्थात तीर्थंकर परमात्मा ने जो हमें उपदेश दिया वैसा ही उनका जीवन था। उन्होंने स्वयं महाव्रतों का पालन किया। मनुष्य, तिर्यंच और देवताओं संबंधी परिषहों को समभाव सहन किया और हमें भी समभाव से जीवन जीने का उपदेश दिया।
🌸 उनकी कथनी और करनी में किंचित मात्र भी अंतर नहीं होता है। अतः हम उन्हें भगवान मानते है। उन्होंने हमें भी भगवान बनने का मार्ग बताया है अर्थात अगर हम भी उनके जैसा जीवन जीए तो हम भी भगवान बन सकते हैं ; इसमें कहीं शंका का कोई कारण नहीं है।
🌹 हमारे गुरु भगवंत भी उन्हीं भगवान के बताए मार्ग पर चल रहे हैं और हमें भी भगवान की वाणी सुना कर उस मार्ग में चलने की प्रेरणा करते हैं। इसलिए यह सूत्र तिण्णाणं तारियाणं है।
🙏 इसे सुनाने वाले स्वयं मोक्ष में पधारे हैं और हमें भी मोक्ष का मार्ग बताते हैं।
🌺 अरिहंत पद प्राप्त करने वाले जीव कहां उत्पन्न होते हैं –
🌺 अरिहंत पद को प्राप्त करने वाले जीव मनुष्य लोक के पंद्रह कर्मभूमि क्षेत्र में उत्तम एवं निर्मल कुल में अपनी माता को चौदह उत्तम स्वप्न होने के साथ अवतरित होते हैं।
🌺 गर्भकाल के सवा नौ महीने पूर्ण होने पर चंद्रबल आदि उत्तम योग होने पर शुभ मुहूर्त में मति ज्ञान श्रुत ज्ञान और अवधी ज्ञान इन तीन ज्ञानों सहित जन्म लेते हैं।
🌸 तीर्थंकर का जन्म महोत्सव कहां और कैसे मनाया जाता है ‌? *
🌸 64 इंद्र आदि अनेक देव मेरु पर्वत के पण्डग वन में बहुत उमंग और धूमधाम से तीर्थंकर का जन्म उत्सव मनाते हैं। यह इंद्रों का जीत व्यवहार अर्थात परंपरागत व्यवहार है। छप्पन कुमारीका देवियां आकर भगवान का जन्मोत्सव करती है।
🌸 उसके पश्चात उनके माता-पिता बहुत धूमधाम के साथ अपने पुत्र का जन्मोत्सव मनाते हैं। जन्मोत्सव में अपने परिवार जन, इष्ट-मित्र आदि सभी को आमंत्रित करते हैं। सबको भोजन आदि कराकर उनका यथायोग्य भेंट देकर आदर – सत्कार करते हैं। यथा समय उनका नामकरण करते हैं।
💐 तीर्थंकर का विवाह –
💐 अगर भोगावली कर्म का उदय हो तो तीर्थंकर परमात्मा का उत्तम कुल की स्त्री के साथ पाणिग्रहण होता है, परंतु वे अनासक्त भाव से भोग भोगते हैं।
🌻 भगवान का दीक्षा ग्रहण :-
🌻 भगवान दीक्षा ग्रहण करने से पूर्व एक वर्ष तक प्रतिदिन एक करोड़ आठ लाख सोना मोहरों का दान करते हैं। इस प्रकार एक वर्ष में कुल तीन अरब अठासी करोड़ सुवर्ण मुद्राओं का दान करते हैं। उसका सभी जैन यथाशक्ति अनुकरण करते हैं। यह है भगवान के दान की महिमा।
🌻 उसके पश्चात नौ लोकतांतिक देव आकर भगवान को चेताते हैं अर्थात उनके वैराग्य की अनुमोदना करते हैं।
🌻 तब तीर्थंकर तीन कारण तीन योग से आरंभ – परिग्रह का त्याग करके दीक्षा धारण करते हैं। भगवान तीन करण तीन योग के नौ भंग – १) मन से स्वयं नहीं करें, २) दूसरों से नहीं करावे, ३) करने वालों की अनुमोदना भी नहीं करें। ४) वचन से स्वयं नहीं करें, ५) दूसरों से नहीं करावे, ६) करने वालों की अनुमोदना भी नहीं करें।
७) काया से स्वयं नहीं करें, ८) दूसरों से नहीं करावें और ९) करने वालों की अनुमोदना भी नहीं करें। इस प्रकार अरंभ समारंभ का त्याग करके दीक्षा धारण करते हैं। दीक्षा ग्रहण करते ही उन्हें चौथा मन:पर्यव ज्ञान हो जाता है।
🌻 भगवान जब दीक्षा लेते हैं तब सातों नरकों में एक अंतरमुहूर्त तक उजाला होता है। तब नरक के जीवों को तीनों प्रकार की यातना से मुक्ति मिलती है। 1) परमाधामी देवों द्वारा प्रताड़ना। 2) भौगोलिक वेदना और 3) आपस में लड़ना झगड़ना।
🌻 छदमस्त काल में भगवान तपस्या करते हैं। तपस्या करते समय देव, दानव और तिर्यंच संबंधी उपसर्ग आते हैं। वे उन्हें समभाव से सहन करते हैं। किसी-किसी को उपसर्ग नहीं भी आते हैं। अनेक प्रकार के दुष्कर तप करके चार घनघाति कर्मों का क्षय करते हैं और केवल ज्ञान – केवल दर्शन को प्राप्त करते हैं अर्थात वे सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हो जाते हैं।
🌼 भगवान केवल ज्ञान केवल दर्शन प्राप्त करने के पहले चार घनघाती कर्मों का क्षय करते हैं, वे इस प्रकार है :-
१) सर्व प्रथम दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय का क्षय करते हैं। जिससे उन्हें अनंत आत्म गुण रूप यथाख्यात चरित्र की प्राप्ति होती हैं। मोहनिया कर्म के क्षय होते ही उनके २) ज्ञानावरणीय ३) दर्शनावरणीय और ४) अंतराय इन कर्मों का क्षय हो जाता है।
🌸 ज्ञानावरणीय कर्म के‌ क्षय होने से उन्हें केवल ज्ञान प्राप्त होता है। केवल ज्ञान प्राप्त होते ही समस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव को देखने लगते है अर्थात वे सर्वदर्शी हो जाते हैं।
🌸अंतराय कर्म के क्षय होने से वे अनंत दान लब्धि, लाभ लब्धि, भोग लब्धि, उपभोग लब्धि और वीर्य लब्धि प्राप्त करते हैं। जिससे वे अनंत शक्तिमान होते हैं।
🌻 चार घातिय कर्मों के क्षय करने के पश्चात वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र में चार अघातिय कर्म शेष रह जाते हैं, यह चारों कर्म शक्तिहीन हैं इस कारण अरिहंत भगवान की आत्मा में किसी भी प्रकार का विकार उत्पन्न नहीं होता है।
🌻 चारों घाति है कर्मों के क्षय होने के कारण उन्हें अरिहंत पद की प्राप्ति होती है। अरिहंत भगवान बारह गुणों से सहित, चौंतीस अतिशय और वाणी के पैंतीस गुणों से युक्त होते हैं तथा वे अठारह दोषों से रहित होते हैं।
🌺 भगवान की शक्ति :- 2000 सिंह बल एक अष्टापद में, 1000000 अष्टापद का बल एक बलदेव में, दो बलदेव का बल एक वासुदेव में, दो वासुदेव का बल एक चक्रवर्ती में, 1000000 चक्रवर्तीयों का बल एक देवता में और 1000000 देवताओं का बल एक इन्द्र में होता है। ऐसे अनंत इन्द्र मिलकर भी भगवान की कनिष्ठ अंगुली को भी नहीं हिला सकते हैं।
🌺 अरिहंत भगवान के बारह गुण
1) अनंत ज्ञान, 2) अनंत दर्शन, 3) अनंत चारित्र, 4) अनंत तप, 5) अनंत बल वीर्य, 6) अनंत क्षायिक सम्यक्त्व,7) वज्र ऋषभ नाराच, 8) समचतुरस्त्र संस्थान, 9) चौंतीस अतिशय, 10) वाणी के पैंतीस गुण, 11) एक हजार आठ लक्षण, 12) चौसठ इंद्रों के वंदनीय।
कोई – कोई ये बारह गुण मानते हैं
१) अनंत ज्ञान, २) अनंत दर्शन, ३) अनंत चारित्र, ४) अनंत तप, ५) अशोक वृक्ष, ६) सिंहासन, ७) तीन छत्र, ८) चौंसठ चंवर के जोड़े, ९) प्रभा मंडल, १०) अचित्त फूलों की वर्षा, ११) दिव्य ध्वनि और १२) अंतरिक्ष में साढ़े बारह करोड़ गेबी बाजे।
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अरिहंत भगवान के चौंतीस अतिशय
🌻 सर्व साधारण में जो विशेषता नहीं पाई जाती हैं, उसे अतिशय कहते हैं। अरिहंत भगवान में ऐसी चौतीस मुख्य विशेषताएं होती हैं। यह विशेषताएं या अतिशय कुछ जन्म से ही होती है और कुछ केवल ज्ञान प्राप्ति के पश्चात होती हैं। वे इस प्रकार है:-
🌻 भगवान के चार अतिशय जन्म से ही होते हैं।
🌻 15 अतिशय केवल ज्ञान के बाद प्राप्त होते हैं।
🌻 15 अतिशय देवताओं द्वारा किए जाते हैं।
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🌸 जन्म से चार अतिशय :-
१) आहार और विहार चर्म चक्षु वालों को नहीं दिखाई देना। (केवल अवधी ज्ञानी देख सकते हैं।)
२) शरीर पर रज, मैल, अशुचि आदि का लेप नहीं लगना अर्थात शरीर सुंदर और निर्लेप होना।
३) रक्त और मांस गाय के दूध से भी ज्यादा उज्जवल और मधुर होना।
४) श्वासोच्छोवास में पद्मकमल से ज्यादा सुगंध होना।
अरिहंत परमात्मा के चौंतीस अतिशय
केवलज्ञान के बाद प्राप्त पंद्रह अतिशय
१) भगवान का आहार और निहार चर्म चक्षु वालों को नहीं दिखाई देता है। केवल अवधि ज्ञानी ही देख सकते हैं।
२) जब भगवान चलते हैं तब आकाश में गर्णाट करता हुआ धर्म चक्र चलता है और जब भगवान ठहर जाते हैं तब वह ठहर जाता है।
३) भगवान के ऊपर लंबी लंबी मोतियों की झालर वाले एक के ऊपर दूसरा, दूसरे के ऊपर तीसरा इस तरह आकाश में तीन छत्र दिखाई देते हैं।
४) गौ के दूध और श्वेत कमल से भी अधिक उज्वल बालों वाले तथा रत्न जड़ित डंडी वाले चंवर भगवान के दोनों तरफ ढोरे जाते हुए दिखाई देते है।
५) स्फटिक मणि के सामान देदीप्यमान, सिंह के कंधों के आकार वाले, रत्न जड़ित अत्यंत प्रकाश वाले पादपिठिका युक्त सिंहासन पर भगवान विराजे हैं, ऐसा दिखाई देता है।
६) बहुत ऊंची रत्न जड़ित स्तंभ वाली ध्वजा अनेक छोटी-छोटी ध्वजाओं से घिरी हुई इंद्रध्वजा भगवान के आगे दिखाई देती है।
७) भगवान से 12 गुना ऊंचा अशोक वृक्ष अनेक शाखा, प्रशाखा, फूल-फल एवं सुगंध वाला भगवान पर छाया करता हुआ दिखाई देता है।
८) शरद ऋतु के सूर्य से भी 12 गुना अधिक तेज प्रकाश वाला अंधकार का नाशक प्रभामंडल अरिहंत भगवान के पीछे दिखाई देता है। ऐसा ग्रंथों में लिखा है। प्रभामंडल के प्रभाव से तीर्थंकर भगवान के चारों दिशाओं में चार मुख दिखाई देते हैं। इस कारण समवसरण में आपका उपदेश सुनने वाले को ऐसा लगता है कि भगवान का मुंह उसकी ओर ही है।
९) भगवान जहां-जहां भी विहार करते हैं वहां की उबड़-खाबड़ जमीन भी समतल हो जाती हैं।
१०) कांटे आदि सब उल्टे हो जाते हैं ताकि किसी को चुभे नहीं।
११) शीतकाल में उष्ण और उष्ण काल में शीत अर्थात सुहावना मौसम रहता है।
१२) भगवान के चारों तरफ एक-एक योजन तक सुगंधित जल की वृष्टि होती है। जिससे धूल नहीं उड़े।
१३) भगवान के चारों तरफ एक- एक योजन तक मंद-मंद सुगंधित शीतल वायु चलती हैं जिससे सब अशुचि वस्तुएं दूर चली जाती है।
१४) भगवान के चारों तरफ देवताओं द्वारा वैक्रिय से बनाए हुए 5 रंगों (काला, नीला, हरा, पीला और सफेद) के अचित्त फूलों की घुटनों की ऊंचाई तक वर्षा होती है उन फूलों के डंठल नीचे और मुख ऊपर होते हैं।
१५) अमनोज्ञ वर्ण, गंध रस और स्पर्श का नाश हो जाता है।
देवताओं के द्वारा किए जाने पंद्रह अतिशय
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१) भगवान के चारों तरफ मनभावन वर्ण , गंध, रस और स्पर्श का वातावरण रहता है।
२) भगवान के चारों तरफ एक-एक योजन तक परिषद धर्मोपदेश सुनती हैं। वह सबको बराबर सुनाई देता है और सबको प्रिय लगता है।
३) भगवान का उपदेश अर्ध मागधि अर्थात आधा मगध देश की भाषा और आधा अन्य देश की मिश्रित भाषा में होता है)। भगवं च णं अद्धमागहिए भासाए धम्ममाइक्खति (उववाई सूत्र)।
४) भगवान का उपदेश आर्य और अनार्य देश के मनुष्य, पशु, पक्षी, सर्प आदि सब अपनी अपनी भाषा में समझते हैं।
५) भगवान के समवसरण में उनका दर्शन करते ही सभी जीव अपना जाति वैर भूल जाते हैं, जैसे – सिंह – बकरी, कुत्ता – बिल्ली आदि सब अपने पिछले वैर भूल जाते है। वहां सब लोग शांत होकर भगवान की वाणी सुनते हैं।
६) भगवान के प्रभावशाली एवं सौम्य स्वरूप को देखकर अपने-अपने मत का अभिमान करने वाले अन्य मत वाले वादी अभिमान छोड़कर नम्र बन जाते हैं।
७) भगवान के पास वादी वाद करने तो आते हैं, परंतु उत्तर नहीं दे पाते हैं।
८) भगवान के चारों तरफ 25 – 25 योजन तक टिड्डी, चूहों आदि उपद्रव नहीं होता है।
९) महामारी हैजा आदि रोगों का उपद्रव नहीं होता है।
१०) स्वदेशी राजा और उसकी सेना का उपद्रव नहीं होता है।
११) परदेसी राजा और उसकी सेना का उपद्रव नहीं होता है। वहां हमेशा शांति बनी रहती हैं और वातावरण पूर्ण रूप से भयमुक्त होता है।
१२) अतिवृष्टि नहीं होती है।
१३) अनावृष्टि भी नहीं होती है।
१४) वहां अकाल भी नहीं पड़ता है। वहां का किसान अतिवृष्टि और अनावृष्टि से दुःखी नहीं होता है। भरपूर अनाज का उत्पादन होता है। जिससे वहां अकाल की स्थिति नहीं बनती है।
१५) भगवान के जाने से पहले जिस देश में ईति-भिति महामारी, स्व और पर राजा आदि का भय आदि उपद्रव हो रहे हो तो वे भगवान के वहां आते ही शांत हो जाते हैं।
अरिहंत परमात्मा की वाणी के पैंतीस गुण
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🌸 तीर्थंकर भगवान केवलज्ञान-केवल दर्शन को प्राप्त करने के पश्चात से और तीर्थंकर नाम गोत्र का उदय होने के कारण निरह,निष्पक्ष और निष्काम भाव से जगत के जीवो के कल्याण हेतु धर्मोपदेश देते हैं। उनके उपदेश में, उनकी वाणी में जो गुण हैं उनका वर्णन हम यहां करते हैं।
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1) तीर्थंकर भगवान संस्कार युक्त, आदर युक्त शब्दों का उपयोग करते हैं।
2) भगवान का उपदेश चारों तरफ एक-एक योजन तक बैठे हुए सभी श्रोताओं को एक जैसा सुनाई देता है।
3) तुच्छता से रहित, साधे और मान-सम्मान पूर्ण वचन बोलते हैं।
4) मेघ गर्जना के समान भगवान की वाणी सूत्र और अर्थ से गंभीर होती हैं। उच्चारण और तत्व दोनों दृष्टि उसे उनकी वाणी का रहस्य बहुत गहन होता है।
5) जैसे गुफा में अथवा शिखर बंद भवन में बोलने से प्रतिध्वनी उठती है वैसे ही भगवान की वाणी की प्रतिध्वनि उठती है।
6) भगवान की देशना श्रोताओं को घी और शहद के समान स्निग्ध और मधुर लगती हैं।
7) भगवान के वचन छः राग और तीस रागिनी रूप होने से वे श्रोताओं को उसी प्रकार मंत्रमुग्ध बना देते हैं जैसे पुंगी की आवाज से सर्प और वीणा के शब्द सुनकर मृग तल्लीन हो जाता है।
8) भगवान के वचन सूत्र रूप होते हैं, उनमें शब्द कम और भाव बहुत ज्यादा होते हैं।
9) भगवान के वचनों में परस्पर विरोध नहीं होता है। एक तरफ तो कहे कि अहिंसा परमो धर्म और दूसरी तरफ कहे ये पशु यज्ञ अर्थात बलि देने के लिए ही हैं। इस तरह के विरोधी वचन भगवान नहीं बोलते हैं।
10) भगवान एक विषय को पूर्ण करके ही दूसरे विषय की चर्चा करते हैं। उनका भाषण सिलसिलेवार होता है। उसने कहीं किसी प्रकार की गड़बड़ नहीं होती हैं।
११) भगवान ऐसी स्पस्टता से समझाते हैं कि सुनने वाले को उनकी वाणी में किंचित मात्र भी संदेह नहीं होता है।
१२) बड़े से बड़ा पंडित भगवान की वाणी में गलती नहीं निकाल सकता है।
१३) भगवान की वाणी सुनते ही श्रोताओं का मन एकाग्र हो जाता है। उनके वजन सबको मनभावन (मनोज्ञ) लगते हैं।
१४) बहुत सोच विचार कर देश काल के अनुसार बोलते हैं। उससे उनके शब्दों के अर्थ का कोई अनर्थ नहीं कर सकता है।
१५) भगवान सार्थक और अर्थपूर्ण उपदेश ही देते हैं। व्यर्थ समय पुरा करने के लिए निरुपयोगी बातें नहीं कहते हैं।
१६) जीव-अजीव और नौ तत्वों के स्वरूप को उजागर करने वाले सार युक्त वचन ही बोलते हैं।
१७) संसार संबंधी सार रहित बातें अगर कहनी आवश्यक हो तो संक्षेप में कहते हैं।
१८) धर्म कथा ऐसे स्पष्ट शब्दों में कहते – सुनाते हैं जिसे छोटा बच्चा भी आसानी से समझ सकें।
१९) अपनी प्रशंसा और दूसरों की निंदा नहीं करते हैं।
२०) भगवान की वाणी दूध और मिश्री से भी अधिक मधुर होती है इस कारण श्रोता धर्मोपदेश सुनते हुए बीच में से उठकर नहीं जाते हैं।
२१) किसी की मर्मभेदी, गुप्त बात उजागर करने वाले वचन नहीं बोलते है।
२२) किसी की भी उसकी योग्यता से अधिक प्रशंसा करके उसकी खुशामद नहीं करते है, परन्तु उनकी योग्यता के अनुसार उनके गुणों का वर्णन अवश्य करते हैं।
२३) भगवान ऐसा सार्थक उपदेश देते हैं, जिससे सबका कल्याण हो और आत्म सिद्धि हो।
२४) भगवान अधिक जोर से, अधिक धीरे-धीरे अथवा अधिक शीघ्रता पूर्वक नहीं बोलते हैं।
२५) व्याकरण के अनुसार शब्दों का उपयोग करते है।
२६) जो वास्तविक अर्थ है उसे छिन्न-भिन्न या तुच्छ करके नहीं कहते है। जो जैसा है वैसा ही कहते है।
२७) भगवान की वाणी सुनकर श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाते है और बोल उठते हैं, अहो! धन्य है आपकी वाणी, धन्य है आपकी भाषण शैली और धन्य है प्रभु आपका उपदेश।
२८) भगवान हर्ष युक्त शैली में उपदेश देते है और उनके वचन इतने प्रभावशाली होते है कि सुनने वाले के सामने वैसा ही चित्र उपस्थित हो जाता है।
२९) भगवान धाराप्रवाह धर्म कथा कहते है।
३०) सुनने वाला जो प्रश्न लेकर आता है, उसका बिना पुछे ही समाधान हो जाता है।
३१) भगवान जो वचन कहते है, वे श्रोताओं के मन में वैसे ही जम जाते हैं।
३२) भगवान की वाणी में शब्द, अर्थ, वर्ण और वाक्य सब स्पष्ट होते हैं।
३३) भगवान ऐसी भाषा कहते है जो ओजस्वी और प्रभावशाली हो।
३४) भगवान एक बात समझाकर ही दूसरी बात करते हैं।
३५) धर्मोपदेश करते समय कितना ही समय क्यों न हो भगवान कभी थकते नहीं है।

 

 

नवकार मंत्र मा अधिष्ठायक् देव देवी हाज़रा हजूर है ,जागता रहे,जब भी जपो परिणाम मिले बिना न रहे।
👏👏👏🙏

मंत्र के पदो का प्रभाव
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नमो अरिहंताणं बोलने से निर्णय शक्ति आती है ,(मन मजबूत बनता है )
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नमो सिद्धाणं बोलने से शरीर मे शक्ति आती है ।
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नमो आयरियाणं बोलने से हमारे आचारों मे सुधार आता है ,ओर सुख की प्राप्ति होती है ।
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नमो उवज्झायाणं‌ बोलने से ज्ञान की प्राप्ति होती है , शांति आती है ।
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नमो लोए सव्वसाहुणं बोलने से सहन शक्ति आती है ।
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एसो पंचनमुक्कारो पद बोलने से उदासीनता जाती है ,प्रसन्नता आती है।
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सव्वपावप्पणासणो पद बोलने से अटके हुए कार्य पूर्ण होते है ,कार्य सिद्धि होती है।
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मंगलाणं च सव्वेसिं पद बोलने से संयोग ऐसा बैठता है की कार्य पूर्ण होय बिना नहीं रहता है ।
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पढमं हवई मंगलं पद बोलने से मंगल ही मंगल।
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कोई भी शुभ काम हो ,तब मंत्र जपने से कार्य निर्विघ्न सम्पन्न होता है…….
यदि कोई महामंत्र दूसरे के लिए
जपता है ,तो वो उसको तो लाभ देता ही है ,साथ ही साथ अपने आप को भी लाभ मिलता है।💫💫💫

जैन धर्म एवं णमोकार मंत्र प्रश्नोत्तरी

प्रश्न-१ जैन किसे कहते हैं?
उत्तर-१ जो कर्मों के विजेता जिनेन्द्र भगवान के उपासक हैं और उनक बतलाए गए मार्ग व सिद्धांतों पर चलते हैं उन्हें जैन कहते हैं।

प्रश्न-२ जैन धर्म का मूत्र मंत्र कौन सा है?
उत्तर-२ जैन धर्म का मूल मंत्र णमोकार मंत्र (महामंत्र) है। वह इस प्रकार है—णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं।

प्रश्न-३ यह णमोकार मंत्र किस भाषा में है व इसे किसने बनाया है?
उत्तर-३ णमोकार मंत्र प्राकृत भाषा में है व यह मंत्र अनादिनिधन मंत्र है। अर्थात् इसे किसी ने बनाया नहीं है, यह प्राकृतिकरूप
से अनादिकाल से चला आ रहा है।

प्रश्न-४ णमोकार मंत्र में किसे नमस्कार किया गया है?
उत्तर-४ णमोकार मंत्र में पाँच परमेष्ठियों को नमस्कार किया गया है।

प्रश्न-५ पाँचों परमेष्ठियों के नाम बताओ?
उत्तर-५ पाँचों परमेष्ठियों के नाम क्रमश: इस प्रकार हैं-अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु।

प्रश्न-६ परमेष्ठी किसे कहते हैं?
उत्तर-६ जो परम पद में स्थित हैं, उन्हें परमेष्ठी कहते हैं।

प्रश्न-७ णमोकार मंत्र का लघु रूप बताओ?
उत्तर-७ णमोकार मंत्र का लघु रूप ‘ॐ’ है। इस ‘असिआउसा’ मंत्र में भी णमोकार मंत्र के पाँचों पद समाहित हो जाते हैं।

प्रश्न-८ ‘ॐ’ में पाँचों परमेष्ठी कैसे समाहित हो तो हैं?
उत्तर-८ ‘अरिहंत’ का ‘अ’, सिद्ध (अशरीरी) का अ, आचार्य का ‘आ’, उपाध्याय का ‘उ’ और साधु अर्थात् मुनि का ‘म’, इस प्रकार अ+अ+आ+उ+म· ओम्’ बना।

प्रश्न-९ णमोकार मंत्र का अर्थ बताओ?
उत्तर-९ णमो अरिहंताणं – अर्हंतों को नमस्कार हो। णमो सिद्धाणं – सिद्धों को नमस्कार हो। णमो आइरियाणं – आचार्यों को नमस्कार हो। णमो उवज्झायाणं – उपाध्यायों को नमस्कार हो। णमो लोए सव्वसाहूणं – लोक में सर्व साधुओें को नमस्कार हो।

प्रश्न-१० इस मंत्र में कितने अक्षर हैं? कितनी मात्राएँ हैं? कितने व्यंजन हैं?
उत्तर-१० इस मंत्र में ३५ अक्षर और ५८ मात्राएँ हैं। तथा १० व्यंजन हैं।

प्रश्न-११ णमोकार मंत्र को कहाँ-कहाँ और कब जपना चाहिए?
उत्तर-११ णमोकार मंत्र को प्रत्येक अवस्था में और हर जगह जपना चाहिए। कहा भी है- अपवित्र या पवित्र जिस स्थिती में हो। यह पंचनमस्कार जपें पाप दूर हो।। (अपवित्र अवस्था में इस मंत्र को केवल मन में स्मरण करना चाहिए, बोलना नहीं चाहिए।

प्रश्न-१२ णमोकार मंत्र में सि’ से पहले अरहंत को क्यों नमस्कार किया गया है?
उत्तर-१२ णमोकार मंत्र में सिद्ध से पहले अरहंत को उपकार की दृष्टि से नमस्कार किया गया है क्योंकि सिद्ध भगवान की महिमा को बतलाने वाले अरहंत भगवान ही होते हैं। जैसे व्यवहार में कहा है-गुरु-गोविन्द दोउ खड़े काके लागूँ पाय। बलिहारि
गुरु आपने गोविन्द दियो बताय।।

प्रश्न-१३ णमोकार मंत्र का अपमान करने वाले की कहानी सुनाओ?
उत्तर-१३ सुभौम चक्रवर्ती छ: खण्डों का स्वामी था। एक ज्योतिष्क देव ने शत्रुता से राजा को मारना चाहा परन्तु राजा के णमोकार मंत्र जपने से वह मार नहीं सका। तब उसने छल से राजा से कहा कि तुम इस णमोकार मंत्र पर पैर रख दो तो मैं तुम्हें छोड़ दूँगा। राजा ने वैसा ही किया। मंत्र के अपमान करने के कारण देव ने उसे समुद्र में डुबोकर मार दिया और वह मरकर सांतवें नरक में चला गया।

प्रश्न-१४ णमोकार मंत्र की महिमा बताओ?
उत्तर-१४ एसो पंचणमोयारो, सव्व पावप्पणासणो। मंगलाणं च सव्वेसिं, पठमं हवइ मंगलं।।अर्थात् यह पंचनमस्कार मंत्र सब पापों का नाश करने वाला है और सभी मंगलों में पहला मंगल है।

प्रश्न-१५ इस महामंत्र से कितने मंत्र निकले हैं?
उत्तर-१५ इस महामंत्र से ८४ लाख मंत्र निकले हैं।

प्रश्न-१६ णमोकार मंत्र को सुनकर सद्गति प्राप्त करने वाले किसी जीव की संक्षिप्त कहानी सुनावें?
उत्तर-१६ एक बार जीवन्धर कुमार ने मरते हुए कुत्ते को णमोकार मंत्र सुनाया जिसके प्रभाव से वह मरकर देवगति में सुदर्शन यक्षेन्द्र हो गया।

प्रश्न-१७ णमोकार मंत्र सुनने से सद्गति प्राप्त करने वाले किन्हीं दो पशुओं के नाम बताओ?
उत्तर-१७ णमोकार मंत्र सुनने से सद्गति प्राप्त करने वाले दो पशुओं के नाम हैं-१. कुत्ता जो जीवंधर कुमार द्वारा णमोकार मंत्र सुनकर देव हुआ और बैल जो णमोकार मंत्र सुन कालान्तर में सुग्रीव हुआ।

प्रश्न-१८ अरहंताणं, अरिहंताणं में कौन सा शुद्ध पाठ है?
उत्तर-१८ प्राचीन आठ अरिहंताणं है और दोनों ही पाठ शुद्ध है।

प्रश्न-१९ अरिहंत परमेष्ठी का लक्षण बताओ?
उत्तर-१९ जिन्होंने चार घातिया कर्मों का नाश कर दिया है, जिनमें छियालीस गुण होते हैं और अठारह दोष नहीं होते हैं वे अरिहंत परमेष्ठी कहलाते हैं।

प्रश्न-२० अरिहंत भगवान के कितने कर्म बाकी हैं?
उत्तर-२० अरिहंत भगवान के चार अघातिया कर्म बाकी हैं- १. वेदनीय २. आयु ३. नाम ४. गोत्र

प्रश्न-२१ अरिहंत भगवान के कितने ज्ञान होते हैं?
उत्तर-२१ अरिहंत भगवान के मत्र एक केवलज्ञान ही होता है।

प्रश्न-२२ अरिहंत भगवान कौन सा गुणस्थान होता है?
उत्तर-२२ अरहंत भगवान के सयोगकेवली नाम का तेरहवाँ गुणस्थान होता है।

प्रश्न-२३ क्या अरिहंत परमेष्ठी पीछी कमण्डलु रखते हैं?
उत्तर-२३ नहीं, अरिहंत परमेष्ठी पीछी कमण्डलु नहीं रखते हैं। क्योंकि वे मुनि अवस्था से ऊपर सकलपरमात्मा की श्रेणी में आ जाते हैं।

प्रश्न-२४ अरिहंत भगवान के ४६ गुण कौन-कौन से हैं?
उत्तर-२४ ३४ अतिशय, ८ प्रातिहार्य और ४ अनंतचतुष्टय ये अरिंहत के ४६ गुण हैं।

प्रश्न-२५ अतिशय किसे कहते हैं?
उत्तर-२५ सर्व साधारण प्राणियों में नहीं पायी जाने वाली अद्भुत या अनोखी बात को अतिशय कहते हैं।

प्रश्न-२६ ३४ अतिशय कौन-कौन से हैं?
उत्तर-२६ जन्म के १० अतिशय, केवलज्ञान के १० और देवकृत १४ अतिशय होते हैं।

प्रश्न-२७ जन्म के दश अतिशयों के नाम बताओ?
उत्तर-२७ जन्म के १० अतिशय इस प्रकार हैं—अतिशय सुन्दर रूप, सुगंधित शरीर, पसीना नहीं आना, मल-मूत्र रहित होना, हित-मित प्रिय वचन, अतुल बल, सफेद खून, शरीर में १००८ लक्षण, सम चतुरस्र संस्थान और वङ्कावृषभनाराच संहनन।

प्रश्न-२८ केवलज्ञान के दस अतिशयों के नाम बताओ?
उत्तर-२८ भगवान के चारों ओर सौ-सौ योजन तक सुभिक्षता, आकाश में गमन, एक मुख होकर भी चार मुख दिखना, हिंसा न होना, उपसर्ग नहीं होना, ग्रास वाला आहार नहीं लेना, समस्त विद्याओं का स्वामीपना, नख केश नहीं बढ़ना, नेत्रों की पलके नहीं झपकना और शरीर की परछाईं नहीं पड़ना, केवलज्ञान के होने पर ये दश अतिशय होते हैं।

प्रश्न-२९ देवकृत १४ अतिशय कौन-कौन से हैं?
उत्तर-२९ भगवान की अर्थ—मागधी भाषा, जीवों में परस्पर मित्रता, दिशाओं की निर्मलता, आकाश की निर्मलता, छहों ऋतुओं के फल-फूलों का एक ही समय में फलना-फूलना, एक योजन तक पृथ्वी का दर्पण की तरह निर्मल होना, चलते समय भगवान के चरणों के नीचे सुवर्ण कमल की रचना, आकाश में जय-जय शब्द, मंद सुगन्धित पवन, सुगंधमय जल की वर्षा, पवन कुमार देवों द्वारा भूमि की निष्कंटकता, समस्त प्राणियों को आनंद, भगवान के आगे धर्मचक्र का चलना और आठ मंगल द्रव्यों का साथ रहना ये १४ अतिशय देवों द्वारा किये जाते हैं।

प्रश्न-३० यह देवकृत क्यों कहलाते हैं? यह कब होते हैं?
उत्तर-३० देवों द्वारा किये जाने के कारण ये अतिशय देवकृत कहलाते हैं तथा यह केवलज्ञान होने पर होते हैं।

प्रश्न-३१ आठ प्रातिहार्य के नाम बताओ?
उत्तर-३१ अशोक वृक्ष, रत्नमय सिंहासन, तीन छत्र, भामण्डल, दिव्यध्वनि, देवों द्वारा पुष्पवर्षा, यक्षदेवों द्वारा चौंसठ चंवर ढोरे जाना और दुंदुभी बाजे बजाना ये आठ प्रातिहार्य हैं।

प्रश्न-३२ प्रातिहार्य किसे कहते हैं?
उत्तर-३२ विशेष शोभा की चीजों को प्रातिहार्य कहते हैं।

प्रश्न-३३ अनंत चतुष्टय कौन-कौन से हैं?
उत्तर-३३ अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख और अनंतवीर्य ये चार अनंतचुष्टय हैं अर्थात् भगवान के ये दर्शन ज्ञानादि अंत रहित होते हैं।

प्रश्न-३४ अठारह दोषों के नाम बताओ?
उत्तर-३४ जन्म, बुढ़ापा, प्याय, भूख, आश्चर्य, पीड़ा, दु:ख, रोग, शोक, गर्व, मोह, भय, निद्रा, चिन्ता, पसीना, राग, द्वेष और मरण ये अठारह दोष अरिहंत भगवान में नहीं होते हैं।

प्रश्न-३५ सिद्ध परेमष्ठी का स्वरूप बताओ?
उत्तर-३५ जो आठों कर्मों का नाश हो जाने से नित्य, निरंजन, अशरीरी है, लोक के अग्रभाग पर विराजमान हैं वे सिद्ध परमेष्ठी कहलाते हैं। इनके आठ मूलगुण होते हैं, उत्तर गुण तो अनंतानंत हैं।

प्रश्न-३६ सिद्धों के वे आठ मूल गुण कौन-कौन से हैं?
उत्तर-३६ क्षायिक सम्यक्त्व, अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अगुरुलघुत्व, अवगाहनत्व, सूक्ष्मत्व, अनंतवीर्य और अत्याबाधत्व ये आठ मूल गुण सिद्धों के हैं?

प्रश्न-३७ सिद्ध परमेष्ठी ने कितने कर्मों का नाश कर दिया है?
उत्तर-३७ सिद्ध परमेष्ठी ने आठों कर्मों का नाश कर दिया है।

प्रश्न-३८ क्या वे वापस संसार में लौट कर आवेंगे?
उत्तर-३८ नहीं, चूँकि उन्होंने आठों कर्मों का नाश कर दिया है इसलिए वे संसार में वापस लौटकर नहीं आवेंगे।

प्रश्न-३९ आचार्य परमेष्ठी का क्या स्वरूप है?
उत्तर-३९ जो पाँच आचारों का स्वयं पालन करते हैं और दूसरे मुनियों से कराते हैं, मुनिसंघ के अधिपति हैं और शिष्यों को दीक्षा व प्रायश्चित आदि देते हैं, वे आचार्य परमेष्ठी हैं।

प्रश्न-४० आचार्य परमेष्ठी के कितने मूलगुण होते हैं?
उत्तर-४० आचार्य परमेष्ठी के ३६ मूलगुण होते हैं।

प्रश्न-४१ छत्तीस मूलगुण कौन-कौन से हैं?
उत्तर-४१ १२ तप, १० धर्म, ५ आचार, ६ आवश्यक और ३ गुटित ये आचार्य के ३६ मूलगुण हैं।

प्रश्न-४२ उत्तर गुण कितने हैं?
उत्तर-४२ उत्तर गुण अनेक हैं।

प्रश्न-४३ बारह प्रकार के तपों के नाम बताओ?
उत्तर-४३ अनशन (उपवास), ऊनोदर (भूख से कम खाना) व्रतपरिसंख्यान (आहार के समय अट्पटा नियम), रसपरित्याग (नमक आदि रस त्याग), विविक्त शय्यासन (एकांत स्थान में सोना, बैठना), कायक्लेश (शरीर से गर्मी, सर्दी आदि सहन करना) ये छह बाह्य तप हैं। प्रायश्चित (दोष लगने पर दण्ड लेना), विनय (विनय करना), वैयावृत्य (रोगी आदि साधु की सेवा करना), स्वाध्याय (शास्त्र पढ़ना), व्युत्सर्ग (शरीर से ममत्व छोड़ना) और ध्यान (एकाग्र होकर आत्मचिन्तन करना) ये छह अन्तरंग तप हैं।

प्रश्न-४४ तप किनते प्रकार के होते हैं?
उत्तर-४४ तप बारह प्रकार के होते हैं-छह बाह्य तप, छह अंतरंग तप।

प्रश्न-४५ दश धर्म कौन-कौन से हैं?
उत्तर-४५ उत्तर क्षमा, मादर्व, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिञ्चन्य व ब्रह्मचर्य ये दश धर्म हैं।

प्रश्न-४६ आचार्य कौन से पंचाचारों का पालन करते हैं।
उत्तर-४६ दर्शनाचार अर्थात् दोषरहित सम्यग्दर्शन, ज्ञानाचार अर्थात् दोषरहित सम्यग्ज्ञान, चारित्राचार अर्थात् निर्दोष चारित्र, तपाचार अर्थात् निर्दोष तपश्चरण और वीर्याचार अर्थात् अपने आत्मबल को प्रगट करना ये पाँच आचार हैं।

प्रश्न-४७ तप किसे कहते हैं?
उत्तर-४७ ‘‘इच्छानिरोधस्तप:’’ इच्छाओं को रोकना ही तप कहलाता है।

प्रश्न-४८ तीन गुप्तियों के नाम बताओ?
उत्तर-४८ मोनगुप्ति—मन को वश में रखना, वचनगुप्ति—वचन को वश में रखना और कायगुप्ति—काय को वश में रखना ये तीन गुप्तियाँ हैं।

प्रश्न-४९ छह आवश्यक कौन-कौन से हैं?
उत्तर-४९ समता, वंदना, स्तुति, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय और कायोत्सर्ग ये छह आवश्यक हैं।

प्रश्न-५० समता किसे कहते हैं?
उत्तर-५० सतस्त जीवों पर समता भाव और त्रिकाल सामायिक करना समता है।

प्रश्न-५१ वंदना किसे कहते हैं? स्तुति किसे कहते हैं?
उत्तर-५१ किसी एक तीर्थंकर को नमस्कार करना वंदना है। चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति करना ही स्तुति है।

प्रश्न-५२ प्रतिक्रमण क्या है?
उत्तर-५२ निज में लगे हुए दोषों को दूर करना प्रतिक्रमण है।

प्रश्न-५३ स्वाध्याय और कायोत्सर्ग में क्या अंतर है?
उत्तर-५३ शास्त्रों को पढ़ना स्वाध्याय कहलाता है और शरीर में ममत्व छोड़ना और ध्यान करना कायोत्सर्ग है।

प्रश्न-५४ ‘प्रत्याख्यान’ नामक क्रिया का क्या अर्थ है?
उत्तर-५४ आगे होने वाले दोषों का और आहार-पानी आदि का त्याग करना ‘प्रत्याख्यान’ है।

प्रश्न-५५ उपाध्याय परमेष्ठी का स्वरूप बताओ?
उत्तर-५५ जो मुनि ११ अंग और चौदह पूर्व के ज्ञानी होते हैं अथवा तत्काल के सभी शास्त्रों के ज्ञानी होते हैं तथा जो संघ में साधुओं को पढ़ाते हैं वे उपाध्याय परमेष्ठी होते हैं।

प्रश्न-५६ इनके २५ मूलगुण कौन से हैं?
उत्तर-५६ ११ अंग और १४ पूर्व को पढ़ना-पढ़ना ही इनके २५ मूलगुण हैं।

प्रश्न-५७ ग्यारह अंगों के नाम बताओ?
उत्तर-५७ आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञातृ कथांग, उपासकाध्ययनांग, अंतकृद्दशांग, अनुत्तरोपपादकदशांग, प्रश्नव्याकरणांग और विपाक सूत्रांग ये ११ अंग हैं।

प्रश्न-५८ चौदह पूर्वों के नाम बताओ?
उत्तर-५८ उत्पादपूर्व, अग्रायणीपूर्व, वीर्यानुप्रवादपूर्व, अस्तिनास्तिप्रवादपूर्व, ज्ञानप्रवादपूर्व, कर्मप्रवाद पूर्व, सत्प्रवादपूर्व, आत्मप्रवादपूर्व, प्रत्याख्यानप्रवादपूर्व, विद्यानुवादपूर्व, कल्याणप्रवादपूर्व, प्राणानुवाद पूर्व, क्रियाविशालपूर्व और लोकविन्दुपूर्व ये चौदह पूर्व कहलाते हैं।

प्रश्न-५९ साधु परमेष्ठी का स्वरूप बताओ?
उत्तर-५९ जो पाँचों इन्द्रियों के विषयों से तथा आरम्भ और परिग्रह से रहित होते हैं, ज्ञान, ध्यान और तप में लीन रहते हैं ऐसे दिगम्बर मुनि मोक्षमार्ग का साधन करने वाले होने से साधु परमेष्ठी कहलाते हैं।

प्रश्न-६० इनके कितने मूलगुण होते हैं?
उत्तर-६० इनके २८ मूलगुण होते हैं।

प्रश्न-६१ अट्ठाईस मूलगुण कौन-कौन से हैं?
उत्तर-६१ ५ महाव्रत, ४ समिति, ५ इन्द्रियविजय, ६ आवश्यक और ७ शेषगुण ये साधु के २८ मूलगुण हैं।

प्रश्न-६२ पाँच प्रकार के महाव्रत कौन से हैं?
उत्तर-६२ हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँचों पापों का मन, वचन, काय से सर्वथा त्याग कर देना ये पाँच महाव्रत कहलाते हैं।

प्रश्न-६३ पाँच समितियाँ कौन-कौन सी हैं।
उत्तर-६३ ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण और प्रतिष्ठापना ये पाँच समितियाँ हैं।

प्रश्न-६४ ईर्यासमिति किसे कहते हैं?
उत्तर-६४ चार हाथ आगे जमीन देखकर चलना ईर्यासमिति है।

प्रश्न-६५ भाषा समिति का अर्थ बताओ?
उत्तर-६५ हित-मित-प्रिय वचन बोलना भाषा समिति है।

प्रश्न-६६ एषणा समिति का क्या अर्थ है?
उत्तर-६६ निर्दोष आहार ग्रहण करना एषणा समिति है।

प्रश्न-६७ आदान-निक्षेपण समिति किसे कहते हैं?
उत्तर-६७ पिच्छी से देख-शोधकर पुस्तक आदि को उठाना-धरना आदान-निक्षेपण समिति है।

प्रश्न-६८ प्रतिष्ठापना समिति किसे कहा है?
उत्तर-६८ जीव रहित भूमि में मल आदि विसर्जित करना प्रतिष्ठापना समिति है।

प्रश्न-६९ इन्द्रियविजय नामक पाँच मूलगुण कौन से हैं?
उत्तर-६९ स्पर्शप, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण-इन पाँचों इन्द्रियों को वश करना ये इन्द्रियविजय नामक पाँच मूलगुण हैं।

प्रश्न-७० मुनियों के ७ शेष गुण कौन से हैं?
उत्तर-७० स्नाना का त्याग, भूमि पर शयन, वस्त्र त्याग, केशों का लोच, दिन में एक बार लघु भोजन, दातोन का त्याग और खड़े
होकर आहारग्रहण ये ७ शेष गुण हैं।

प्रश्न-७१ मुनि कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर-७१ मुनि पाँच प्रकार के होते हैं—पुलाक, वकुश, कुशील, निग्र्रन्थ और स्तानक। एक और प्रकार से मुनि दो प्रकार के होते हैं—१. जिनकल्पी २. स्थविरकल्पी।

प्रश्न-७२ जिनकल्पी मुनि किसे कहते हैं?
उत्तर-७२ जितेन्द्रिय, सम्यक्त्व रत्न के विभूषित, एकादश अंग के ज्ञाता, निरंतर मौन रखने वाले, वङ्का वृषभमाराचसंहनन के धारी, वर्षाकाल में षट्मास निराहार रहने वाले व जिनभगवान सदृश विहार करने वाले जिनकल्पी है।

प्रश्न-७३ स्थाविरकल्पी मुनि का क्या लक्षण है?
उत्तर-७३ जिनमुद्रा के धारक, संघ के साथ विहार करने वाले, धर्म प्रभावना तथा उत्तम-उत्तम शिष्यों के रक्षण व वृद्ध साधुओं के रक्षण व पोषण में सावधान रहने वाले साधु स्थविरकल्पी मुनि कहलाते हैं।

प्रश्न-७४ मुनिराज कौन से १३ प्रकार के चारित्र का पालन करते हैं?
उत्तर-७४ पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति ये तेरह प्रकार के चारित्र हैं जिनका कि मुनिराज पालन करते हैं।

प्रश्न-७५ छ: प्रकार के आहार कौन से हैं?
उत्तर-७५ ओजाहार, लेपाहार, मानसाहार, कवलाहार, कर्माहार और नोकर्माहार ये आहार के छ: भेद हैं।

प्रश्न-७६ कवलाहार का अर्थ बताओ?
उत्तर-७६ कवलाहार का अर्थ ग्रास का आहार करने से है।

प्रश्न-७७ परीषह कितनी होती है? उनके नाम बताओ?
उत्तर-७७ परीषह बाईस होती हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं—क्षुधा, तृषा, शति, उष्ण, दंशमशक, नग्नता, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, तद्य, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार, पुस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन।

प्रश्न-७८ एक साथ कितनी परीषह उदय में आ सकती है?
उत्तर-७८ एक साथ उन्नीस परीषह उदय में आ सकती हैं।

प्रश्न-७९ उपसर्ग किन-किन के द्वारा होते हैं? उपसर्ग किसे कहते हैं?
उत्तर-७९ उपसर्ग प्रकृति द्वारा तथा व्यन्तद देवों, मनुष्यों व तिर्यंचों के द्वारा होते हैं। उपसर्ग उसे कहते हैं जो दूसरों के द्वारा दिया गया कष्ट हो और उसे सहन करना पड़े।

प्रश्न-८० परीषह एवं उपसर्ग में क्या अंतर है?
उत्तर-८० कष्टों को स्वयं बुला-बुला कर सहन करना परीषह है तथा दूसरों द्वारा किये जाने वाले कष्टों को सहन करना पड़े वह उपसर्ग कहलाता है।

प्रश्न-८१ केशलोंच क्यों किये जाते हैं?
उत्तर-८१ साधुओं के मूलगुण होने के साथ में अहिंसक, अयाचक और अपरिग्रह के सूचक हैं।

प्रश्न-८२ दिगम्बर जैन पिच्छीधारी कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर-८२ दिगम्बर जैन पिच्छीधारी चार प्रकार के होते हैं-१. मुनि २. आर्यिका ३. क्षुल्लक ४. क्षुल्लिका

प्रश्न-८३ जैन साधु केशलोंच कब करते हैं?
उत्तर-८३ जैन साधु २ महीने से ४ महीने के भीतर-भीतर केशलोंच करते हैं। उत्तम २ माह के अंतराल से, मध्यम ३ माह में अंतराल में और जघन्य ४ माह के अंतराल में करते हैं।

प्रश्न-८४ कितनी अंतराय टालकर मुनि-आर्यिका आहार लेते हैं?
उत्तर-८४ ३२ प्रकार की अंतराय टालकर मुनि-आर्यिका आहार लेते हैं।

प्रश्न-८५ ३२ प्रकार की अंतराय के नाम बताओ?
उत्तर-८५ काक, अमेध्य, छर्दि, रोधन, रुधिर, अश्रुपात, जान्वध: परामर्श, जानूपरिव्यतिक्रम, नाभ्यधोनिर्गमन, प्रत्याख्यात सेवना, जन्तुवध, काकादि पिंडहरण, ग्रासपतन, पाणिजन्तुवध, मांसादिदर्शन, पादान्तर प्राणिनिर्गमन, देवाधुपसर्ग, भाजनसम्पात, उच्चार, प्रस्रवण, भोज्यगृहप्रवेश, पतन, उपवेशन, सदंश, भूमिस्पर्श, निष्ठीवन, करेणकिंचित्ग्रहण, उदरकृमिनिर्गमन, अदत्तग्रहण, प्रहार, ग्रामदाह, पादेन किंचित् ग्रहण ये ३२ प्रकार की अंतराय हैं।

प्रश्न-८६ जैन साधु मयूर पंख की पिच्छी ही क्यों रखते हैं? कमण्डलु क्यों रखते हैं?
उत्तर-८६ जैन साधु कमण्डलु तो शुद्धि हेतु रखते हैं और मयूरपंख की पिच्छी इसलिए रखते हैं कि वह शुद्ध, कोमल व जीवों की रक्षा में सहायक होती है तथा उनके आदान-निक्षेपण समिति में सहायक होती है।

प्रश्न-८७ साधु के पास कौन-कौन से उपकरण होते हैं?
उत्तर-८७ कमण्डलु-पिच्छी (शुद्धि व जीव रक्षा हेतु) व शास्त्र (स्वाध्याय हेतु) ये ही उपरकण साधु के पास होते हैं।

प्रश्न-८८ साधुओं के दस भेद कौन-कौन से हैं, बताओ?
उत्तर-८८ आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष्य, ग्लान, गण, कुल, संघ साधु और मनोज्ञ ये साधुओं के दश भेद हैं।

प्रश्न-८९ दिगम्बर जैन परम्परा में पिच्छीधारियों को नमस्कार करते समय क्या-क्या बोलना चाहिए?
उत्तर-८९ दिगम्बर जैन परम्परा में मुनियों को नमस्कार करते समय नमोस्तु, आर्यिकाओं को वन्दामि तथा ऐलक, क्षुल्लक व क्षुल्लिका को इच्छमि कहते हैं।

प्रश्न-९० गणिनी के एवं आर्यिका के कितने मूलगुण होते हैं?
उत्तर-९० गणिनी के मुनियों की भाँति ही ३६ मूलगुण और आर्यिकाओं के २८ मूलगुण होते हैं।

प्रश्न-९१ मुनि एवं आर्यिकाओं के कौन-कौन से मूलगुण में अंतर होता है?
उत्तर-९१ मुनि एवं आर्यिकाओं के दो मूलगुणों में अंतर होता है-१. आचेलक्य अर्थात् मुनि तो पूर्ण त्यागी हैं पर र्आियकाओं के लिए शास्त्र में दो साड़ी बताई हैं २. स्थित भोजन, मुनि खड़े होकर आहार लेते हैं किन्तु आर्यिका के मूलगुण में बैठकर आहार लेना बताया है।

प्रश्न-९२ मुनि एवं आर्यिकाओं की दिन भर की मुख्य क्रियाएँ बतलावें?
उत्तर-९२ मुनि एवं आर्यिका दिन भी की मुख्य क्रियाओं में चार बार स्वाध्याय, तीन बार देव वंदना और दो बार प्रतिक्रमण करते हैं।

प्रश्न-९३ साधुओं की तपस्या का कितना भाग पुण्य राजाओं को स्वयमेव प्राप्त हो जाता है?
उत्तर-९३ साधुओं की तपस्या का छठाँ भाग पुण्य राजाओं को स्वयमेव प्राप्त हो जाता है।

प्रश्न-९४ गुरु शिष्य के आपसी सम्बन्धों के बारे में कौन सा उदाहरण किया जाता है?
उत्तर-९४ चाणक्य और चन्द्रगुप्त का।

प्रश्न-९५ गुरु का लक्षण बताओ?
उत्तर-९५ जो गुरु परम्परा से ग्रंथ, अर्थ और उभयरूप से सूत्र को यथावत् सुनकर और उसे अवधारण करके स्वयं संसार से
भयभीत होकर शिष्यों को उभयनीति-निश्चय व्यवहारनय की पद्धति के बल से सूत्रों को पढ़ाते हैं वे गुरु कहलाते हैं।

प्रश्न-९६ शिष्य का लक्षण बताओ?
उत्तर-९६ जो दुराग्रह से रहित हो तथा श्रवण, धारण आदि बुद्धि के विभव से युक्त हो, इत्यादि गुणों से युक्त शिष्य ही ‘शास्य’ – उपदेश के लिए पात्र है।

प्रश्न-९७ कायोत्सर्ग किसे कहते हैं?
उत्तर-९७ शरीर में ममत्व का त्याग करना-णमोकार मंत्र का स्मरण करना कायोत्सर्ग है।

प्रश्न-९८ एक बार के कायोत्सर्ग में कितने स्वाझोच्छ्वास लेने चाहिए?
उत्तर-९८ एक बार के कायोत्सर्ग में २७ श्वासोच्छ्वास लेना चाहिए।

प्रश्न-९९ आर्यिकाएँ कितने मीटर की साड़ी पहनती हैं?
उत्तर-९९ आर्यिकाएँ आठ मीटर की साड़ी पहनती हैं।

प्रश्न-१०० नमस्कार किस प्रकार किया जाता है?
उत्तर-१०० नमस्कार हाथ जोड़कर अर्थात् साधारण रूप से, पंचांग साष्टांग तथा दोनों घुटने टेककर के किया जाता है।

प्रश्न-१०१ आवर्त, शिरोनति एवं पंचांग तथा साष्टांग नमस्कार किस प्रकार से किया जाता है?
उत्तर-१०१ हाथ जोड़कर उसे तीन बार घुमाने को आवर्त, मस्तक झुकाकर नमस्कार करने को शिरोनति, पंचांग-गवासन बैठकर दोनों हाथों को आगे कर जमीन पर रखते हुए सिर को दोनों हाथों के बीच में जमीन से टिकाना तथा पूर्णरूपेण पेट के बल लेटकर प्रमाण करना साष्टांग है।

प्रश्न-१०२ वर्तमान में कितने पिच्छीधारी साधु हैं?
उत्तर-१०२ वर्तमान में ६०० पिच्छीधारी साधु हैं?

प्रश्न-१०३ चातुर्मास की स्थापना व निष्ठापना कब होती है?
उत्तर-१०३ चातुर्मास की स्थापना आषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी को तथा चातुर्मास की निष्ठापना कार्तिक वदी चतुर्दशी को होती है।

प्रश्न-१०४ साधू सामायिक एवं प्रतिक्रमण दिन में कितनी बार करते हैं?
उत्तर-१०४ साधू तीन बार सामायिक एवं दो बार प्रतिक्रमण करते हैं?

प्रश्न-१०५ मुनियों के कितने आवश्यक कत्र्तव्य वे कितने महाव्रत होते हैं?
उत्तर-१०५ मुनियों के षट्आवश्यक कत्र्तव्य और ५ महाव्रत होते हैं।

प्रश्न-१०६ चारित्र के कितने भेद हैं?
उत्तर-१०६ चारित्र के दो भेद हैं-१. सकल २. निकल।

प्रश्न-१०७ आशीर्वाद देते समय साधु किनके लिए क्या-क्या बोलते हैं?
उत्तर-१०७ आशीर्वाद देते समय साधु व्रती के लिए ‘समाधिस्तु’, ‘बोधिलाभोस्तु’, अव्रती के लिए ‘सद्धर्मवृद्धिरस्तु तथा अन्य के लिए कल्याणमस्तु कहते हैं। अधर्मी के लिए या नीच प्राणी के लिए ‘पापमक्षयास्तु’ कहते हैं।

प्रश्न-१०८ क्षुल्लकों के कितने मूलगुण होते हैं?
उत्तर-१०८ क्षुल्लकों के भी मुनियों की भाँति २८ मूलगुण होते हैैं।

प्रश्न-१०९ क्षुल्लकों को कितनी प्रतिमाएँ होती हैं?
उत्तर-१०९ क्षुल्लकों की ११ प्रतिमाएँ होती हैं।

प्रश्न-११० क्षुल्लक आहार किस प्रकार लेते हैं तथा कितनी बार लेते हैं?
उत्तर-११० क्षुल्लक आहार कटोरे या थाली में लेते हैं तथा मुनि आदि की भाँति एक बार ही आहार लेते हैं।

प्रश्न-१११ क्या, क्षुल्लक मुनियों की भाँति ही केशलोंच करते हैं?
उत्तर-१११ नहीं, क्षुल्लकों के लिए मुनि की भाँति केशलोंच का विधान नहीं है व नाई से बाल बनवा सकते हैं परन्तु कोई-कोई क्षुल्लक आगे उत्कृष्ट तप की प्राप्ति के हेतु अर्थात् मुनि बनने हेतु पहले से ही क्षुल्लकावस्था में करते हैं जिसमें कोई दोष नहीं है।

प्रश्न-११२ चार प्रकार के मुनि कौन-कौन से हैं?
उत्तर-११२ यति, मुनि, अनगार और ऋषि ये चार प्रकार के मुनि हैं।

प्रश्न-११३ मुनियों के छत्तीस उत्तर गुण कौन-कौन से हैं?
उत्तर-११३ बारह तप और बाईस परिषह जय ये मुनियों के छत्तीस उत्तर गुण हैं।

+प्रश्न-११४ चतुर्विध संघ किसे कहते हैं?
उत्तर-११४ (मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका) चतुर्विध संघ कहलाते हैं।

 

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प्रश्न- काल कितने होते हैं तथा कौन-कौन से होते हैं?
उत्तर- काल दो प्रकार के होते हैं- १. उत्सर्पिणी २. अवसर्पिणी।
प्रश्न- अवसर्पिणी काल कितने वर्ष का होता है?
उत्तर- अद्धापल्यों से निर्मित दस कोड़ा कोड़ी सागर प्रमाण अवसर्पिणी काल होता है।
प्रश्न- उत्सर्पिणी काल कितने वर्ष का होता है?
उत्तर- अवसर्पिणी काल के समान ही उत्सर्पिणी काल भी दस कोड़ा-कोड़ी सागर प्रमाण होता है।
प्रश्न- उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी काल में अंतर बताइये?
उत्तर- अवसर्पिणी काल में शरीर की ऊँचाई, आयु, वैभव आदि घटते रहते हैं और उत्सर्पिणी काल में शरीर की ऊँचाई, आयु आदि बढ़ते रहते हैं।
प्रश्न- षट्काल कितने-कितने वर्षों के होते हैं?
उत्तर- प्रथम सुषमा-सुषमा काल चार कोड़ाकोड़ी सागर, द्वितीय सुषमा काल तीन कोड़ा-कोड़ी सागर, तृतीय काल दो कोड़ा-कोड़ी सागर, चतुर्थ काल बयालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागर, पंचम काल इक्कीस हजार वर्ष प्रमाण और छठा काल भी इक्कीस वर्ष प्रमाण है।
प्रश्न- दश प्रकार के कल्पवृक्षों के नाम बताओ?
उत्तर- पानांग, तूर्यांग, भूषणांग,वस्त्रांग, भोजनांग, आलयांग, दीपांग, भाजनांग, मालांग और ज्योतिरंग ये दश प्रकार के कल्पवृक्ष होते हैं।
प्रश्न- हुण्डावसर्पिणी काल किसे कहते हैं?
उत्तर- हुण्डावसर्पिणी काल—इस काल में तृतीय काल में कुल काल शेष रहने पर वर्षा, विकलेन्द्रिय जीवोत्पत्ति, कल्पवृक्षों का अंत, कर्मभूमि व्यापार प्रारंभ, चक्रवर्ती का विजयभंग, ब्राह्मणवणोत्पत्ति, अनेक निकृष्ट जातियाँ आदि नाना प्रकार के दोष होते हैं।
प्रश्न- हुण्डावसर्पिणी काल कब आता है?
उत्तर- असंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल की शलाकाओं के बीत जाने पर हुण्डावसर्पिणी काल आता है।
प्रश्न- भूमि के कितने भेद हैं?
उत्तर- भूमियाँ दो प्रकार की होती हैं-१. भोगभूमि २. कर्मभूमि।
प्रश्न- कर्मभूमि के कितने भेद है वे कहाँ-कहाँ हैं?
उत्तर- १७० कर्मभूमियाँ होती हैं। एक-एक जम्बूद्वीप के विदेह में ४-४ वक्षार पर्वत और ३-३ विभंगा नदियाँ होने से १-१ विदेह के ८-८ भाग हो गये है। इन चार विदेहों के बत्तीस भाग-विदेह हो गये हैं। ये ३२ विदेह एक मेरु सम्बंधी है। तो ढ़ाई द्वीप के ५ मेरु सम्बन्धी ३२²५·१६० और ५ भरत एवं ५ ऐरावत के इस प्रकार ये ही १७० कर्मभूमियाँ हैं।
प्रश्न- उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी में वर्तमान में कौन सा काल चल रहा है?
उत्तर- उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी में वर्तमान में अवसर्पिणी काल चल रहा है।
प्रश्न- कल्पवृक्ष कौन-कौन से काल में रहते हैं?
उत्तर- अवसर्पिणी काल में कल्वृक्ष प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय काल में रहते हैं। उत्सर्पिणी काल में चतुर्थ, पंचम और षष्ठम काल में कल्पवृक्ष रहते हैं।
प्रश्न- कोड़ा-कोड़ी सागर वर्ष का क्या तात्पर्य है?
उत्तर- एक करोड़ को एक करोड़ से गुणा करने पर कोड़ा-कोड़ी बनता है।
प्रश्न- प्रथम काल में मनुष्यों की आयु तथा ऊँचाई बतावें?
उत्तर- प्रथम काल में मनुष्यों की आयु तीन पल्य प्रमाण और शरीर की ऊँचाई छह हजार धनुष होती है।
प्रश्न- भोगभूमि के मनुष्य मरकर कौन-कौन सी गतियों में जा सकते हैं?
उत्तर- भोगभूमिज मनुष्य यदि मिथ्यादृष्टि हैं तो भवनत्रिक में जन्म लेते हैं और यदि सम्यग्दृष्टि हैं तो सौधर्म युगल में जन्म लेते हैं।
प्रश्न- भोगभूमिया जीवों का जन्म और मृत्यु कैसे होती है?
उत्तर- भोगभूमि मनुष्य और तिर्यंच माता पिता की नव मास आयुशेष रहने पर युगलिया जन्म लेते हैं और संतान के जन्मते ही पुरुष को छींक और स्त्री को जंभाई आते ही मृत्यु को प्राप्त होते ही विलीन हो जाते हैं।
प्रश्न- भोगभूमिया मनुष्य कितनी आयु में युवा हो जाते हैं?
उत्तर- भोगभूमिया मनुष्य इक्कीस दिन में युवा हो जाते हैं।
प्रश्न- भोगभूमि में सम्यक्त्व की उत्पत्ति के कौन-कौन से निमित्त कारण होते हैं?
उत्तर- भोगभूमि में कोई जीव जतिस्मरण से, कोई देवों के सम्बोधन करने से और कोई ऋद्धिधारी मुनि आदि के उपदेश सुनने से-इस प्रकार तीन कारण से सम्यक्त्व ग्रहण कर सकते हैं।
प्रश्न- भोगभूमिया मनुष्यों को सम्यग्दर्शन की योग्यता कितनी आयु में प्राप्त होती है?
उत्तर- भोगभूमिया मनुष्यों को सम्यग्दर्शन की योग्यता इक्कीस दिन में प्राप्त होती है।
प्रश्न- इस अवसर्पिणी काल में मोक्ष का द्वार किनने खोला?
उत्तर- इस अवसर्पिणी काल में मोक्ष का द्वार भगवान ऋषभदेव ने खोला।
प्रश्न- दो प्रकार की कर्मभूमियाँ कौन-कौन सी होती हैं?
उत्तर- कर्मभूमि शाश्वत व अशाश्वत इस प्रकार दो प्रकार की हैं।
प्रश्न- मनुष्यों के दो भेद कौन से हैं?
उत्तर- मनुष्यों के दो भेद आर्य और म्लेच्छ हैं।
प्रश्न- आर्य कितने प्रकार के माने गये हैं?
उत्तर- आर्य पाँच प्रकार के माने गये हैं-दर्शन, चारित्र, क्षेत्र, जाति और क्रिया से।
प्रश्न- म्लेच्छ खण्डों में कौन सा काल है?
उत्तर- म्लेच्छ खण्डों में वर्तमान में चतुर्थ काल चल रहा है।
प्रश्न- भोगभूमियाँ मनुष्यों का जन्म कैसे होता है?
उत्तर- भोगभूमिया मनुष्यों का जन्म गर्भज होता है।
प्रश्न- भोगभूमि कौन-कौन से काल में रहती है?
उत्तर- भोगभूमि प्रथम, द्वितीय, तृतीय एवं चतुर्थ काल में रहती है, चतुर्थ काल के अन्त में समाप्त हो जाती है।
प्रश्न- भोगभूमि में जन्म-मरण की क्या प्रक्रिया थी?
उत्तर- भोगभूमि में जन्म माता के गर्भ से युगलिया के रूप में होते ही तत्क्षण पुरुष की डींक एवं स्त्री को जंभाई आते ही मृत्यु हो जाती थी।
प्रश्न- पंचम काल का अंत तथा छठे काल का आरम्भ कैसे होगा?
उत्तर- पंचम काल के अंत में लोग अविनीत, असूयक, सात भय व आठ मदों से युक्त, कलहप्रिय, क्रूर आदि प्रकृतियों से युक्त होंगे। २१ कल्की होंगे, अन्तिम कल्की द्वारा मुनिराज से आहार का प्रथम ग्रास कर के रूप में मांगने पर वह सन्यास को धारण कर लेंगे धर्म, अग्नि नष्ट हो जायेंगे तदनन्तर तीन वर्ष, आठ माह और एक पक्ष के बीत जाने पर छठे काल का आरंभ होगा जिसमें मनुष्य अनेक प्रकार की विकृतियों से युक्त होंगे।
प्रश्न- पंचमकाल के अंत में होने वाले मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका का नाम बताओ?
उत्तर- पंचमकाल के अंत में होने वाले मुनि ‘वीरांगज’, ‘सर्वश्री’ आर्यिका व अग्निदत्त और पंगुश्री नामक श्रावक-श्राविका होंगे।
प्रश्न- वीरांगन मुनि तथा शेष तीनों मरकर कहाँ जायेंगे?
उत्तर- वीरांगज मुनि एक सागर आयु से युक्त होते हुए सौधर्म स्वर्ग में तथा शेष तीनों जीव भी एकपल्य से कुछ अधिक आयु को लेकर ही उत्पन्न होंगे।
प्रश्न- प्रलयकाल कौन से काल में आवेगा?
उत्तर- छठे काल में उनचास दिन कम इक्कीस हजार वर्ष के बीत जाने पर जीवों का भयदायक घोर प्रलयकाल आएगा।
प्रश्न- छठा काल आने में अभी कितना समय है?
उत्तर- छठा काल आने में अभी साढ़े अठारह हजार वर्ष वाकी है।
प्रश्न- छठे काल के अंत में कितने दिन तक कौन सी निकृष्ट वस्तुओं की वर्षा होती है?
उत्तर- छठे काल के अंत में मेघों के समूह सात प्रकार की निकृष्ट वस्तुओेंं की सात-सात दिन तक वर्षा करते हैं जिनके नाम-१. अत्यन्त शीतल जल २. क्षार जल ३.विष ४. धुआँ ५. धूलि ६. वङ्का एवं ७. जलती हुई दुष्प्रेक्ष्य अग्नि ज्वाला।
प्रश्न-कुलकर कितने होते हैं? प्रथम व अन्तिम कुलकर का नाम बताओ?
उत्तर- कुलकर चौदह होते हैं। प्रथम कुलकर का नाम प्रतिश्रुति एवं अंतिम कुलकर का नाम नाभिराय है।
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तीन लोक में क्या-क्या


प्रश्न- लोक कितने होते हैं? नाम बताओ?
उत्तर- लोक तीन होते हैं-१.ऊर्ध्वलोक २. मध्यलोक और ३. अधोलोक
प्रश्न- तीन लोक का आकार कैसा है?
उत्तर- तीन लोक का आकार पुरुषाकार है।
प्रश्न- तीन लोक की ऊँचाई बताते हुए प्रत्येक लोक की अलग-अलग ऊँचाई बतावें?
उत्तर- तीन लोक की ऊँचाई १४ राजु है जिसमें ७ राजु में ऊध्र्वलोक एवं ७ राजु में अधोलोक है इन दोनों के मध्य में ९९ हजार ४० योजन ऊँचा मध्यलोक है जो कि ऊध्र्वलोक का कुछ भाग है।
प्रश्न- तीन लोक में कितने अकृत्रिम चैत्यालय हैं?
उत्तर- तीन लोक में असंख्यात् अकृत्रिम चैत्यालय हैं।
प्रश्न- ऊध्र्व लोक में क्या-क्या है?
उत्तर- ऊध्र्व लोक में १६ स्वर्ग, ९ ग्रैवेयक, ९ अनुदिश और पाँच अनुत्तर हैं जिसके ऊपर सिद्ध शिला है जिसमें अनंतानंत सिद्ध भगवान विराजमान हैं।
प्रश्न- १६ स्वर्गों के नाम बताओ?
उत्तर- सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लावंत, कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत इस प्रकार यह सोलह स्वर्ग हैं।
प्रश्न- ९ ग्रैवेयक व ९ अनुदिश कौन-कौन से हैं?
उत्तर- अधस्तन ३, मध्यम ३ और उपरिम ३ ऐसे नौ ग्रैवेयक हैं। अर्चि, अर्चिमालिनी, वैर, वैरोचन ये चार दिशा में होने से श्रेणीबद्ध एवं सोम, सोमरूप, अंक और स्फटिक ये चार विदिशा में होने से प्रकीर्णक एवं मध्य में आदित्य नाम का विमान है ये ९ अनुदिश हैं।
प्रश्न- पाँच अनुत्तर ने नाम बताओ?
उत्तर- विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित एवं सर्वाद्र्धसिद्धि ये पाँच अनुत्तर विमान हैं।
प्रश्न- स्वर्ग में देवों की पूर्ति कहाँ के जीवों से होती है?
उत्तर- आधा स्वयम्भूरमण द्वीप और सम्पूर्ण स्वम्भूरमण समुद्र में असंख्यातों पंचेन्द्रिय तिर्यंच हैं जो अगर सम्यग्दृष्टि, देशवृती या अणुव्रती हो जायें तो उनसे स्वर्ग के देवों की पूर्ति होती है।
प्रश्न- प्रत्येक अकृत्रिम चैत्यालय में कितनी प्रतिमायें होती हैं?
उत्तर- प्रत्येक आकृत्रिम चैत्यालय में १०८-१०८ प्रतिमायें होती हैं।
प्रश्न- देव कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर- देव चार प्रकार के होते हैं-भवनवासी, व्यन्तरवासी, ज्योर्तिवासी और कल्पवासी।
प्रश्न- भवनवासी देव कहाँ रहते हैं?
उत्तर- अधोलोक की रत्नप्रभा पृथ्वी के खर भाग में असुरकुमार जाति के देवों को छोड़कर नौ प्रकार के देव रहते हैं।
प्रश्न- व्यन्तरवासी देव कहाँ रहते हैं?
उत्तर- रत्नप्रभा पृथ्वी के खरभाग में व्यन्तर देवों के सात भेद रहते हैं और पंक भाग में राक्षस जाति के व्यन्तर देवों के निवास हैं। वैसे तीनों लोकों में व्यन्तर देवों के निवास हैं जहाँ सरोवर, पर्वत,नदी, भवन आदि में वे रहते हैं।
प्रश्न- कल्पवासी देव कहाँ रहते हैं?
उत्तर- कल्पवासी देव सोलह स्वर्गों में रहते हैं।
प्रश्न- ज्योर्तिवासी देव कहाँ रहते हैं?
उत्तर- ढ़ाई द्वीप और दो समुद्रों में ज्योतिषी देव निरन्तर गमन करते हैं।
प्रश्न- देवों के दस भेद कौन से हैं?
उत्तर- इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश, पारिषद, आत्मरक्ष, लोकपाल, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किविल्षक ये देवों के १० भेद होते हैं।
प्रश्न- भवनवासी के दस भेद बतावें?
उत्तर- असुरकुमार, नागकुमार, सुपर्णकुमार, द्वीपकुमार, दिक्कुमार, उदधिकुमार, स्तनिकुमार, विद्युत्कुमार, अग्निकुमार और वायुकुमार ये भवनवासी देवों के दस भेद हैं।
प्रश्न- व्यंतरों के भेद बतावें?
उत्तर- व्यंतर देवों के आठ भेद हैं-किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गंधर्व, यक्ष, भूत, पिशाच, और राक्षस।
प्रश्न- ज्योतिष्क के कितने भेद हैं?
उत्तर- ज्योतिष्क देवों के पाँच भेद हैं- सूर्य, चंद्रमा, ग्रह, नक्षत्र और तारा
प्रश्न- १६ स्वर्गों के ऊपर क्या है?
उत्तर- १६ स्वर्गों के ऊपर नव ग्रैवेयक, नव अनुदिश, पाँच अनुत्तर है और उन सबके ऊपर सिद्धशिला है जहाँ अनंतानंत सिद्ध भगवान विराजमान हैं।
प्रश्न- लौकान्तिक देव कौन से स्वर्ग में होते हैं?
उत्तर- लौकान्तिक देव ब्रह्म नामक पंचम स्वर्ग में रहते हैं।
प्रश्न- दो भव धारण कर मोक्ष जाने वाले कौन से देव होते हैं?
उत्तर- विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित स्वर्ग के देव दो भव धारण कर मोक्ष जाने वाले हैं।
प्रश्न- कौन से देव वाहन बनते हैं?
उत्तर- अभियोग्य जाति के देव वाहन बनते हैं।
प्रश्न- देव मरकर कौन सी गति में जन्म लेते हैं?
उत्तर- देव मरकर मनुष्य और तिर्यंच गति में जन्म ले सकता है।
प्रश्न- सौधर्म इन्द्र कौन से स्वर्ग में होता है?
उत्तर- सौधर्म इंद्र प्रथम स्वर्ग ‘सौधर्म स्वर्ग’ में होता है।
प्रश्न- सौधर्म इन्द्र के हाथी का नाम बताओ?
उत्तर- सौधर्म इन्द्र के हाथी का नाम ‘ऐरावत’ है।
प्रश्न- सिद्धशिला का व्यास कितना है?
उत्तर- सिद्धशिला का व्यास ४५ लाख योजन है।
प्रश्न- भवनवासी के गृहों में अकृत्रिम चैत्यालय कितने हैं?
उत्तर- भवनवासी के गृहों में ७७२००००० प्रमाण जिनमंदिर हैं जिनमें १०८-१०८ जिनप्रतिमाऐं हैं।
प्रश्न- स्वर्ग के देवों के कितने ज्ञान होते हैं?
उत्तर- स्वर्ग के देवों के ३ ज्ञान होते हैं, वे ज्ञान-मति, श्रुत, अवधि।
प्रश्न-मोक्ष कौन-कौन से क्षेत्र में होता है?
उत्तर मोक्ष भरत, ऐरावत और विदेह क्षेत्र में होता है।
प्रश्न- देवों की कितनी इन्द्रियाँ होती हैं?
उत्तर- देवों की पाँच ही इन्द्रियाँ होती है।
प्रश्न- कौन-कौन से स्वर्ग के देव एक भवनवासी होते हैं?
उत्तर- सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र, शची इन्द्राणी, दक्षिण इन्द्रों के चारों लोकपाल, लौकान्तिक देव एवं सर्वाद्र्धसिद्धि के देव नियम से एक भवावतारी होते है।
प्रश्न- सर्वाद्र्धसिद्धि के देव कितने भवावतारी होते हैं?
उत्तर- सर्वाद्र्धसिद्धि के देव एक भवावतारी होते हैं।
प्रश्न- स्वर्गों की कम से कम व अधिक से अधिक आयु कितनी है?
उत्तर- स्वर्गों की जघन्य आयु १० हजार वर्ष एवं उत्कृष्ट आयु ३१ सागर है।
प्रश्न- देवों का कौन सा शरीर होता है?
उत्तर- देवों का शरीर वैक्रियक होता है।
प्रश्न- देवियाँ कौन से स्वर्ग तक होती हैं?
उत्तर- देवियाँ दूसरे स्वर्ग तक होती हैं।
प्रश्न- कौन-कौन से स्वर्ग के देव नियम से सम्यक्दृष्टि होते हैं?
उत्तर- नव अनुदिश और पाँच अनुत्तर के देव नियम से सम्यक्दृष्टि होते हैं।
प्रश्न- मिथ्यादृष्टि मरकर कौन से स्वर्ग तक जा सकते हैं?
उत्तर- मिथ्यादृष्टि मरकर नौ ग्रैवेयक तक जा सकते हैं।
प्रश्न- देवों का जन्म कैसा होता है?
उत्तर- देवों का जन्म उपपाद शैय्या से होता है।
प्रश्न- देवों के कौन-कौन से वेद होते हैं?
उत्तर- देवों के पुरुषवेद और स्त्रीवेद ऐसे दो वेद होते हैं।
प्रश्न- देवियाँ कहाँ जन्म लेती हैं?
उत्तर- सौधर्म और ईशान स्वर्ग में देवियाँ जन्म लेती हैं।
प्रश्न- मध्यलोक में अकृत्रिम चैत्यालय कौन से द्वीप तक होते हैं?
उत्तर- मध्यलोक में अकृत्रिम चैत्यालय अढ़ाई द्वीप तक होते हैं।
प्रश्न- इस मध्यलोक सबसे पहले कौन सी नगरी का सृजन हुआ?
उत्तर- इस मध्यलोक में सबसे पहले अयोध्या नगरी का सृजन हुआ।
प्रश्न- मध्यलोक के बीच में सबसे प्रथम द्वीप कौन सा है?
उत्तर- मध्यलोक के बीच में सबसे प्रथम द्वीप जम्बूद्वीप है।
प्रश्न- सुमेरु पर्वत कितना ऊँचा है?
उत्तर- सुमेरु पर्वत एक लाख ४० योजन ऊँचा है।
प्रश्न- जम्बूद्वीप में कितनी कर्म भूमियाँ हैं?
उत्तर- जम्बूद्वीप में १७० कर्म भूमियाँ हैं।
प्रश्न- जम्बूद्वीप में कितने म्लेच्छ खण्ड हैं?
उत्तर- जम्बूद्वीप में १७० म्लेच्छ खण्ड हैं।
प्रश्न- अढ़ाई द्वीप तक कितने आकृत्रिम चैत्यालय होते हैं?
उत्तर- अढ़ाई द्वीप तक ३९८ अकृत्रिम चैत्यालय हैं”
प्रश्न- अंतिम द्वीप व समुद्र का नाम बताओ?
उत्तर- अंतिम द्वीप स्वयम्भूरमण है तथा अंतिम समुद्र स्वयम्भूरमण है।
प्रश्न- अंतिम द्वीप में कौन से जीव रहते हैं?
उत्तर- अंतिम द्वीप में असंख्यातों तिर्यंच युगल रहते हैं।
प्रश्न- अंतिम समुद्र का व्यास बताओ?
उत्तर- अंतिम समुद्र का व्यास असंख्यात लाख योजन है।
प्रश्न- अंतिम समुद्र में पाये जाने वाले महामत्स्य कितने योजन के होते हैं?
उत्तर- अंतिम समुद्र में पाये जाने वाले महामत्स्य एक हजार योजन के होते हैं।
प्रश्न- वह कौन सा पर्वत है जिसे मनुष्य लांघ नहीं सकते?
उत्तर- मानुषोत्तर पर्वत को मनुष्य लांघ नहीं सकते।
प्रश्न- पाँच मेरुओं के नाम व ऊँचाई बताओ तथा वह कहाँ-कहाँ स्थित हैं?
उत्तर- पाँच मेरुओं के नाम क्रमश: सुदर्शन, विजय, अचल, मन्दर और विधुन्माली हैं इनमें सुदर्शन मेरु विदेह क्षेत्र के बीचों में स्थित है जिसकी ऊँचाई १ लाख ४० योजन है तथा विजय मेरु धातकीखण्ड की पूर्व दिशा में, अचल धातकी खण्ड की पश्चिम दिशा में, मंदर मेरु पूर्व पुष्करार्ध व विधुन्माली मेरु पश्चिम पुष्करार्ध में स्थित है यह चारों मेरुओं की ऊँचाई ८४ हजार योजन है।
प्रश्न- ढ़ाई द्वीप के बाहर के द्वीपों में तथा समुद्रों में कौन-कौन से जीव रहते हैं?
उत्तर- ढ़ाई द्वीप के बाहर के द्वीपों में तथा समुद्रों में तिर्यंच जीव रहते हैं।
प्रश्न- स्वयम्भूरमण द्वीप के मध्य में कौन सा पर्वत है?
उत्तर- स्वयम्भूरणम द्वीप के मध्य में स्वयम्भूरमण नामका पर्वत है।
प्रश्न- जम्बूद्वीप में कितने पर्वत हैं?
उत्तर- जम्बूद्वीप में छ: कुलाचल पर्वत हैं।
प्रश्न- छ: पर्वतों के नाम बताओ? साथ ही वर्ण भी बताओ?
उत्तर- छ: पर्वतों के नाम क्रमश: हिमवान्, महाहिमवान, निषध, नील, रूक्मी और शिखरी हैं। इनके वर्ण क्रम से सोना, चांदी, तपाया हुआ सोना, वैडूर्यमणि, चांदी और सोना है।
प्रश्न- छह सरोवरों के नाम बताते हुए उसमें निवास करने वाली देवियों के नाम बताओ?
उत्तर- छह सरोवरों में पद्म, महापद्म, तिगिंच्छ, केशरी, पुण्डरीक और महापुण्डरीक में क्रम से श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी ऐसी छ: देवियाँ रहती हैं।
प्रश्न- सात क्षेत्रों के नाम बताओ?
उत्तर- भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक्, हैरण्यवत और ऐरावत ये सात क्षेत्र हैं।
प्रश्न- भरत क्षेत्र का विस्तार कितना है?
उत्तर- भरत क्षेत्र का विस्तार जम्बूद्वीप के विस्तार का १९० वाँ भाग है अर्थात् १०००००· ५२६ ६ योजन है।
प्रश्न- हैमवत क्षेत्र का विस्तार कितना है?
उत्तर- हैमवत क्षेत्र का विस्तार भरतक्षेत्र का चार गुना और हिमवान् पर्वत का दोगुना २१०४-२२३८ योजन है।
प्रश्न- लवण समुद्र का विस्तार बताओ?
उत्तर- लवण समुद्र का विस्तार २ लाख योजन है।
प्रश्न- धातकी खण्ड का विस्तार बताओ?
उत्तर- धातकी खण्ड ४ लाख योजन है।
प्रश्न- जम्बू-शाल्मलि वृक्ष कहाँ पर हैं?
उत्तर- जम्बूद्वीप में देवकुरु और उत्तरकुरु में जम्बू वृक्ष एवं शाल्मलि वृक्ष स्थित हैं।
प्रश्न- भरत व ऐरावत क्षेत्र के कितने-कितने खण्ड माने गये हैं?
उत्तर- भरत व ऐरावत क्षेत्र के छ:-छ: खण्ड माने गये हैं-१आर्य खण्ड और ५ म्लेच्छ खण्ड।
प्रश्न- विदेह क्षेत्र में कितनी विभंगा नदियाँ हैं?
उत्तर- विदेह क्षेत्र में १२ विभंगा नदियाँ हैं।
प्रश्न- विद्यमान बीस तीर्थंकर कहाँ-कहाँ होते हैं?
उत्तर- अढ़ाई द्वीप के पाँचों विदेह क्षेत्रों में ४-४ तीर्थंकर होने से कुल मिलाकर २० तीर्थंकर विदेह क्षेत्रों में होते हैं।
प्रश्न- विदेह क्षेत्र कहाँ पर है?
उत्तर- मेरु पर्वत के पूर्व-पश्चिम में विदेह क्षेत्र हैं।
प्रश्न- अढ़ाई द्वीप में कितनी भोगभूमियाँ हैं?
उत्तर- अढ़ाई द्वीप में ६ जम्बूद्वीप की, १२ धातकीखण्ड की एवं १२ पुष्करार्ध की इस प्रकार ३० भोगभूमियाँ हैं।
प्रश्न- जम्बूद्वीप की चार दिशाओं में महाद्वारों के नाम बतावें?
उत्तर- जम्बूद्वीप की चार दिशाओं के महाद्वार विजय, वैजयन्त, जयंत और अपराजित हैं।
प्रश्न- कुलाचल पर्वतों पर क्या-क्या हैं?
उत्तर- कुलाचल पर्वतों पर जिनभवन, देवभवन, सरोवर, कमल, सिद्धकूट व अकृत्रिम चैत्यालय हैं।
प्रश्न- कुलाचल पर्वतों की ऊँचाई बताओ?
उत्तर- हिमवान् पर्वत १०० योजन ऊँचा, महाहिमवान् २०० योजन ऊँचा, निषध ४०० योजन ऊँचा, नील पर्वत ४०० योजन
ऊँचा, रुक्मी पर्वत २०० योजन ऊँचा और शिखरी पर्वत १०० योजन ऊँचा है।
प्रश्न- सुमेरु पर्वत की ऊँचाई बताओ?
उत्तर- सुमेरु पर्वत की ऊँचाई १ लाख ४० योजन है।
प्रश्न- सुमेरु पर्वत के चारों तरफ क्या-क्या हैं?
उत्तर- सुमेरु पर्वत के चारों तरफ नदी, सरोवर, जिनमंदिर व देवभवन आदि हैं।
प्रश्न- गजदंत पर्वत कहाँ है व कितने होते हैं?
उत्तर- सुमेर पर्वत की चार विदिशाओं में चार गंजदंत पर्वत स्थित हैं।
प्रश्न- पद्म सरोवर से कितनी व कौन सी नदियाँ निकलती हैं?
उत्तर- पद्म सरोवर से पश्चिम तोरण द्वार से सिधु नदी, पूर्व तोरण से द्वार से गंगा नदी एवं उत्तर तोरण द्वार से रोहितास्या नदी निकलती है इस प्रकार ये ३ नदियाँ निकलती हैं।
प्रश्न- १४ नदियों के नाम बताओ?
उत्तर- गंगा, सिन्धु, रोहित, रोहितास्या, हरित, हरिकान्ता, सीता, सीतोदा, नारी, नरकान्ता, सुवर्णकूला, रूप्यकूला, रक्ता और रक्तोदा ये चौदह नदियाँ हैं।
प्रश्न- पुष्करार्ध में कितने सूर्य व कितने चंद्रमा हैं?
उत्तर- पुष्करार्ध में ७२ सूर्य व ७२ चंद्रमा हैं।
प्रश्न- दिन-रात का भेद कहाँ-कहाँ नहीं है?
उत्तर- दिन रात का भेद नरक एवं स्वर्ग में नहीं है।
प्रश्न- जम्बूद्वीप का विस्तार कितना है?
उत्तर- जम्बूद्वीप का विस्तार एक लाख योजन अर्थात् ४० करोड़ मील है।
प्रश्न- जम्बूद्वीप में कितने सूर्य व कितने चंद्रमा हैं?
उत्तर- जम्बूद्वीप में २ सूर्य और २ चंद्रमा हैं।
प्रश्न- जम्बूद्वीप के ७८ अकृत्रिम चैत्यालय कहाँ-कहाँ हैं?
उत्तर- सुमेरु के १६, सुमेरु पर्वत की विदिशा में चार गजदंत के ४, हिमवान् आदि षट् कुलाचलों के ६, विदेह क्षेत्र में सोलह वक्षार पर्वतों के १६, विदेह क्षेत्र के बत्तीस विजयार्ध के ३२, भरत ऐरावत के विजयार्ध के २, जम्बू-शाल्मलि वृक्ष के २ इस प्रकार जम्बूद्वीप के ७८ चैत्यालय हैं।
प्रश्न- सुमेरु पर्वत पर कितने वन हैं?
उत्तर- सुमेरु पर्वत पर ४ वन हैं-नन्दनवन, सौमनसवन, भद्रसालवन और पाण्डुकवन।
प्रश्न- असंख्यात द्वीप समुद्रों के प्रथम व अंतिम समुद्र का नाम बताओ?
उत्तर- प्रथम समुद्र का नाम लवण समुद्र और अंतिम समुद्र का नाम स्वयम्भूरमण समुद्र है।
प्रश्न- मनुष्य लोक का व्यास कितना है?
उत्तर- मनुष्य लोक का व्यास ४५ लाख योजन है।
प्रश्न- हमसे सुमेरु पर्वत कितने मील दूर है?
उत्तर- हमसे सुमेरु पर्वत २० करोड़ मील दूर है।
प्रश्न- द्वीप कितने हैं?
उत्तर- द्वीप असंख्यात हैं।
प्रश्न- तेरहद्वीप में कितने अकृत्रित चैत्यालय हैं?
उत्तर- तेरहद्वीप में ४५८ आकृत्रिम चैत्यालय हैं।
प्रश्न- मोक्ष कौन-कौन से काल में होता है?
उत्तर- मोक्ष चतुर्थ काल में होता है वर्तमान में भगवान आदिनाथ कालदोष वश तृतीय काल में ही मोक्ष गये हैं।
प्रश्न-२३९ वर्तमान में मोक्ष जाना सम्भव है या नहीं?
उत्तर-२३९ वर्तमान में स्वर्गों में तो जा सकते हैं परन्तु मोक्ष जाना सम्भव नहीं है।
प्रश्न-२४० कौन से काल में दोष से इस पंचम काल में विशेष घटनाऐं घटित हुईं?
उत्तर-२४० हुण्डावसर्पिणी दोष वश इस पंचमकाल में विशेष घटनाऐं घटित हुईं।
प्रश्न-२४१ योजन किसे कहते हैं?
उत्तर-२४१ चार कोस को एक योजन कहते हैं।
प्रश्न-२४२ सागर किसे कहते हैं?
उत्तर-२४२ एक करोड़ को एक करोड़ से गुणा करने पर कोड़ा-कोड़ी बनता है ऐसे दस कोड़ाकोड़ी पल्यों का एक सागर होता है।
प्रश्न-२४३ राजू किसे कहते हैं?
उत्तर-२४३ असंख्यातों योजन का एक राजू होता है।
प्रश्न-२४४ ऊपर सात राजू में क्या-क्या है?
उत्तर-२४४ ऊपर सात राजू में १६ स्वर्ग, नौ ग्रैवेयक, नव अनुदिश और पाँच अनुत्तर हैं।
प्रश्न-२४५ नीचे ७ राजू में क्या-क्या है?
उत्तर-२४५ नीचे सात राजू में सबसे पहले मध्यलोक में लगी हुई ‘रत्नप्रभा’ पृथ्वी है उसके बाद एक-एक कर सात नरक
हैं।
प्रश्न-२४६ हम जिस पृथ्वी पर हैं उस पृथ्वी का नाम बताओ?
उत्तर-२४६ हम जिस पृथ्वी पर हैं उस पृथ्वी का नाम ‘चित्र’ पृथ्वी है।
प्रश्न-२४७ सूर्य पृथ्वी से कितनी दूरी पर है?
उत्तर-२४७ सूर्य पृथ्वी से ८०० योजन दूर अर्थात् ३२००००० मील देर है।
प्रश्न-२४८ चन्द्रमा का विमान कितनी ऊँचाई पर रहता है?
उत्तर-२४८ चंद्रमा का विमान ८८० योजन अर्थात् ३५२०००० मील दूर है।
प्रश्न-२४९ विजयार्ध पर्वत पर वर्तमान में कौन सा काल है?
उत्तर-२४९ विजयार्ध पर्वत पर वर्तमान में चतुर्थ काल है।
प्रश्न-२५० प्रलय के समय कितने जोड़े देव सुरक्षित करके कहाँ रखते थे?
उत्तर-२५० प्रलय के समय ७२ जोड़े सुरक्षित करके देव विजयार्ध पर्वत की गुफा में रखते थे।
प्रश्न-२५१ एक योजन कितने मील का माना जाता है?
उत्तर-२५१ एक योजन ८००० मील का माना है।
प्रश्न-२५२ चन्द्रमा के भ्रमण की कितनी गलियाँ हैं?
उत्तर-२५२ चन्द्रमा के भ्रमण की १५ गलियाँ हैं।
प्रश्न-२५३ सूर्य के भ्रमण की कितनी गलियाँ हैं?
उत्तर-२५३ सूर्य के भ्रमण की १८४ गलियाँ हैं।
प्रश्न-२५४ चन्द्रमा का परिवार बताइये?
उत्तर-२५४ इन ज्योतिषी देवों में चंद्रमा इंद्र है, सूर्य प्रतीन्द्र है अत: एक चंद्र के १ सूर्य प्रतीन्द्र, ८८ ग्रह, २८ नक्षत्र, ६६ हजार
९७५ कोड़ाकोड़ी तारे ये सब परिवार देव हैं।
प्रश्न-२५५ तारा का विमान कितने व्यास का है?
उत्तर-२५५ तारा का विमान १/४ कोस अर्थात् २५० मील प्रमाण है।
प्रश्न-२५६ जीव मूल स्थान कौन सा है और कहाँ है?
उत्तर-२५६ जीव का मूल स्थान निगोद है और वह सात नरक के नीचे है।
प्रश्न-२५७ वर्तमान में मोक्ष कहाँ है?
उत्तर-२५७ वर्तमान में मोक्ष की व्यवस्था विदेह क्षेत्र में है।
प्रश्न-२५८ सात नरक कौन-कौन से हैं?
उत्तर-२५८ रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बाहुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तम:प्रभा और महातम:प्रभा ये सात नरक हैं।
प्रश्न-२५९ नरक की उत्कृष्ट व जघन्य आयु कितनी है?
उत्तर-२५९ नरक की उत्कृष्ट आयु ३३ सागर व जघन्य आयु १० हजार वर्ष है।
प्रश्न-२६० नरकों में नारकियों के रहने की क्या व्यवस्था है?
उत्तर-२६० नरकों में नारकियों के रहने के लिए विल ही आवास रूप में हैं।
प्रश्न-२६१ नरक की सात पृथ्वियों के नाम बताओ?
उत्तर-२६१ धम्मा, वंशा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मघवी और माघवी ये नर्क की सात पृथ्वियाँ हैं।
प्रश्न-२६२ नरक की पृथ्वियाँ कैसी हैं?
उत्तर-२६२ पहली, दूसरी, तीसरी, चौथी और पांचवी पृथ्वी का तिहाई भाग अत्यन्त उष्ण एवं पाँचवी पृथ्वी का एक भाग शेष वाला, छठीं पृथ्वी और सातवीं पृथ्वी अत्यन्त शीत है।
प्रश्न-२६३ नारकी मरकर कौन सी गति में जन्म ले सकते हैं?
उत्तर-२६३ नारकी मरकर मनुष्य एवं तिर्यंच गति में जन्म ले सकते हैं।
प्रश्न-२६४ नारकियों का जन्म कैसा होता है?
उत्तर-२६४ नारकी नर्क में उत्पन्न हो एक मुहूर्त काल में छहों पर्याप्तियों को पूर्ण कर छत्तीस आयुओं के मध्य मे औंधे मुँह
गिरकर वहाँ गेंद की तरह उछलता है।
प्रश्न-२६५ नारकियों का शरीर कैसा होता है?
उत्तर-२६५ नारकियों करा शरीर अशुभ नामकर्म के उदय से उत्तरोत्तर अशुभ है, आकृति विकृत, हुंडक संस्थान एवं व देखने में बुरे लगते हैं ऊँचाई भी नर्क में क्रम से कम-कम होती चली गयी है।
प्रश्न-२६६ कितने नर्क तक देव नारकियों को सम्बोधित करते हैं?
उत्तर-२६६ तीसरे नर्क तक देव नारकियों को संबोधित करते हैं।
प्रश्न-२६७ नारकियों में कौन सा वेद नहीं होता?
उत्तर-२६७ नारकियों में स्त्रीवेद एवं पुरुषवेद नहीं होता मात्र नपुंसकवेद ही होता है।
प्रश्न-२६८ नरकों में कितने ज्ञान होते हैं?
उत्तर-२६८ नरकों में तीन कुज्ञान होते हैं-कुमति, कुश्रुत, कुअवधि।
प्रश्न-२६९ नारकी जीवों के कितनी इंद्रियाँ होती हैं?
उत्तर-२६९ नारकी जीवों के पाँचों इंद्रियाँ होती हैं।
प्रश्न-२७० नरकों में लड़ाने-भिड़ाने कौन से देव जाते हैं?
उत्तर-२७० नरकों में लड़ाने-भिड़ाने के लिए असुरकुमार जाति के देव जाते हैं।
प्रश्न-२७१ निगोद किसे कहते हैं? कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर-२७१ जहाँ १ स्वास में १८ बार जन्म-मरण होता है वह निगोद कहलाता है। निगोद दो प्रकार के होते हैं-१. नित्य निगोद २. इतर निगोद
प्रश्न-२७२ दोनों निगोद कहाँ हैं?
उत्तर-२७२ नित्य निगोद सात नरक के नीचे है व दो इंद्रिय से निकलकर वापस पुन: एकेन्द्रियादि में चला जाए वह इतर निगोद है मूलत: निगोदिया एकेन्द्रिय में हैं।
प्रश्न-२७३ निगोदयिा जीव कितने प्रकार के होते हैं उनकी आयु कितनी होती है?
उत्तर-२७३ निगोदिया जीव इतरनिगोद व नित्यनिगोद के भेद से दो प्रकार के हैं व उनकी आयु जघन्य अन्तर्मुहूर्त हैं।
प्रश्न-२७४ त्रस नाली की ऊँचाई चौड़ाई व मोटाई कितनी है?
उत्तर-२७४ त्रस नाली की ऊँचाई १३ राजू, चौड़ाई व मोटाई एक-एक राजू है।
प्रश्न-२७५ निगोदिया जीव एक स्वास में कितनी बार जन्म व मरण प्राप्त करता है?
उत्तर-२७५ निगोदिया जीव एक श्वास में १८ बार जन्म-मरण प्राप्त करता है।
प्रश्न-२७६ नर्क में रात-दिन का क्या भेद है?
उत्तर-२७६ नर्क में दिन होता ही नहीं है सदैव घना अन्धकार रहता है।

द्रव्य और उसके भेद


प्रश्न-२७७ द्रव्य कितने होते है नाम बताओ?
उत्तर-२७७ द्रव्य छ: होते हैं-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल।
प्रश्न-२७८ द्रव्य का लक्षण बताओ?
उत्तर-२७८ ‘‘सद्द्रव्य लक्षणं’’ द्रव्य का लक्षण सत् है।
प्रश्न-२७९ द्रव्य का दूसरा लक्षण क्या है?
उत्तर-२७९ ‘गुणपर्ययवद् द्रव्यं’ गुण और पर्यायों के समुदाय को द्रव्य कहते हैं।
प्रश्न-२८० ‘सत्’ क्या है?
उत्तर-२८० ‘उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्तं सत्’ जिसमें उत्पाद, व्यय और ध्रौवय पाया जाय वह सत् है।
प्रश्न-२८१ उत्पाद किसे कहते हैं?
उत्तर-२८१ द्रव्य में नवीन पर्याय की उत्पत्ति को उत्पाद कहते हैं। जैसे-जीव की देव पर्याय का उत्पाद।
प्रश्न-२८२ व्यय किसे कहते हैं?
उत्तर-२८२ पूर्व पर्याय के विनाश को व्यय कहते हैं। जैसे-जीव की मनुष्य पर्याय का विनाश।
प्रश्न-२८३ ध्रौव्य का लक्षण उदाहरण सहित बताओ?
उत्तर-२८३ पूर्व पर्याय का विनाश और नवीन पर्याय का उत्पाद होने पर भी सदा बनने रहने वाले मूल स्वभाव को ध्रौव्य कहते हैं। उदाहरण स्वरूप जीव की मनुष्य तथा देव दोनों पर्यायों में जीवत्व का रहना। ये तीनों अवस्थाएँ एक समय में ही होती हैं।
प्रश्न-२८४ गुण किसे कहते हैं उसके कितने भेद हैं?
उत्तर-२८४ जो द्रव्य के साथ-साथ रहते हैं वे गुण कहलाते हैं जैस जीव का अस्तित्व या ज्ञानादि। उसके दो भेद हैं-१. सामान्य २. विशेष
प्रश्न-२८५ सामान्य गुण किसे कहते हैं?
उत्तर-२८५ जो सभी द्रव्यों के सामान्य रूप से पाये जाते हैं वे सामान्य गुण हैं जैसे अस्तित्व गुण सभी द्रव्यों में समान रूप से रहता है।
प्रश्न-२८६ ‘अस्तित्व’ का अर्थ क्या है?
उत्तर-२८६ अस्तित्व का अर्थ है ‘‘विद्यमान अवस्था’’।
प्रश्न-२८७ विशेष गुण का मतलव उदाहरण सहित बताओ?
उत्तर-२८७ जो दूसरों में न पाये जायें वे विशेष गुण हैं जैसे-जीव के ज्ञान दर्शन और पुद्गल के रूप रस आदि।
प्रश्न-२८८ पर्याय किसे कहते हैं?
उत्तर-२८८ जो क्रम से हों वह पर्यायें हैं।
प्रश्न-२८९ पर्याय के कितने भेद हैं?
उत्तर-२८९ पर्याय के दो भेद हैं-१. अर्थ पर्याय २. व्यञ्जन पर्याय
प्रश्न-२९० अर्थ पर्याय क्या है?
उत्तर-२९० प्रत्येक द्रव्यों में जो प्रतिक्षण सूक्ष्म परिणमन होता है वह अर्थ पर्याय है। यह मन और वचन के अगोचर हैं।
प्रश्न-२९१ व्यंजन पर्याय का लक्षण बताओ?
उत्तर-२९१ जीव और पुद्गल की स्थूल पर्यायों को व्यंजन पर्याय कहते हैं। जैसे जीव की मनुष्य देव आदि पर्यायें और पुद्गल की चौकी पुस्तक आदि पर्यायें स्थूल हैं।
प्रश्न-२९२ ‘‘द्रव्याकाया निर्गुणा गुणा:’’ का अर्थ तत्त्वार्थसूत्र के आधार से बतावें?
उत्तर-२९२ जो निरंतर द्रव्य में रहते हैं और गुणरहित हैं वे गुण हैं।
प्रश्न-२९३ जीव द्रव्य किसे कहते हैं?
उत्तर-२९३ ‘उपयोगो लक्षणं’ जीव का लक्षण उपयोग है।
प्रश्न-२९४ जीव के कितने भेद हैं?
उत्तर-२९४ जीव के दो भेद हैं-१. ज्ञानोपयोग २. दर्शनोपयोग
प्रश्न-२९५ ज्ञानोपयोग के कितने भेद हैं?
उत्तर-२९५ ज्ञानोपयोग के आठ भेद हैं—मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल ये ५ ज्ञान तथा कुमति, कुश्रुत और कुअवधि ये तीन अज्ञान।
प्रश्न-२९६ दर्शनोपयोग के कितने भेद हैं?
उत्तर-२९६ दर्शनोपयोग के चार भेद हैं—चक्षुदर्शन, अचसुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन।
प्रश्न-२९७ पुद्गल किसे कहते हैं? इसके कितने भेद हैं?
उत्तर-२९७ जिसमें हमेशा पूरण और गलन पाया जाय वह पुद्गल है इसके दो भेद हैं—अणु और स्कंध।
प्रश्न-२९८ अणु किसे कहते हैं?
उत्तर-२९८ पुद्गल के सबसे छोटे अविभागी हिस्से को अणु या परमाणु कहते हैं।
प्रश्न-२९९ अविभागी किसे कहते हैं?
उत्तर-२९९ जिसका दूसरा भाग न हो सके वह अविभागी है।
प्रश्न-३०० स्कंध किसे कहते हैं?
उत्तर-३०० दो या तीन से लेकर संख्यात, असंख्यात या अनंत परमाणुओं बने पुद्गल पिंड को स्वंâध कहते हैं।
प्रश्न-३०१ पुद्गल के मुख्य चार गुण कौन से हैं?
उत्तर-३०१ पुद्गल के मुख्य चार गुण हैं-स्पर्श, रस, गंध और वर्ण।
प्रश्न-३०२ पुद्गल के उत्तर गुण कितने हैं, नाम बताओ?
उत्तर-३०२ पुद्गल के उत्तर गुण बीस हैं जिसमें स्पर्श के आठ भेद-हल्का, भारी, कड़ा, नरम, रूखा, चिकना, ठंडा और गर्म। रस के भेद हैं-खट्टा, मीठा, कडुवा, चरपरा और कषायला। गंध के दो भेद हैं-सुगंध और दुर्गन्ध और वर्ण के ५ भेद हैं-काला, पीला, नीला, लाल और सफेद।
प्रश्न-३०३ धर्म द्रव्य का लक्षण बताओ?
उत्तर-३०३ जो जीव और पुद्गलों को चलने में सहकारी हो वह धर्म द्रव्य है जैसे-मछली को चलने में जल सहकारी है।
प्रश्न-३०४ अधर्म द्रव्य की परिभाषा उदाहरण सहित बताओ?
उत्तर-३०४ जो जीव और पुद्गलों को ठहरने में सहकारी हो वह अधर्म द्रव्य है। जैसे-चलते हुए पथिक को ठहरने में वृक्ष की छाया सहकारी है।
प्रश्न-३०५ आकाश द्रव्य का क्या लक्षण है?
उत्तर-३०५ जो समस्त द्रव्यों को अवकाश देता है वह आकाश द्रव्य है।
प्रश्न-३०६ आकाश द्रव्य के दो भेद कौन से हैं?
उत्तर-३०६ आकाश द्रव्य के दो भेद हैं-१. लोकाकाश २. अलोकाकाश।
प्रश्न-३०७ काल द्रव्य का लक्षण भेद सहित बताओ?
उत्तर-३०७ जो सभी द्रव्यों के परिणमन-परिवर्तन में सहायक हो वह कालद्रव्य है। इसके दो भेद हैं-निश्चयकाल और व्यवहारकाल।
प्रश्न-३०८ निश्चयकाल किसे कहते हैं?
उत्तर-३०८ वर्तना लक्षण वाला निश्चयकाल है।
प्रश्न-३०९ व्यवहार काल कौन-कौन से हैं?
उत्तर-३०९ घड़ी, घंटा, दिन, महीना आदि व्यवहारकाल हैं।
प्रश्न-३१० जीव द्रव्य कितने माने हैं?
उत्तर-३१० जीव द्रव्य अनंतानंत हैं।
प्रश्न-३११ पुद्गल द्रव्य कितने हैं?
उत्तर-३११ पुद्गल द्रव्य भी जीव से अनंतगुणें अनंतानंत हैं।
प्रश्न-३१२ धर्म, अधर्म, आकाश और काल कितने-कितने हैं?
उत्तर-३१२ धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य और आकाश द्रव्य एक-एक तथा अखण्ड हैं काल द्रव्य असंख्यात हैं।
प्रश्न-३१३ द्रव्यों की प्रदेश संख्या बतावें?
उत्तर-३१३ जीव द्रव्य, धर्म, अधर्म और लोकाकाश के असंख्यात प्रदेश है। पुद्गल एक से लेकर संख्यात, असंख्यात और अनंतप्रदेशी हैं। अलोकाकाश के अनंत भेद हैं और कालद्रव्य एक प्रदेशी है।
प्रश्न-३१४ अस्तिकाय किसे कहते हैं?
उत्तर-३१४ जो अस्ति अर्थात् विद्यमान हो अर्थात् सत् लक्षण वाला हो वह अस्ति है और बहु प्रदेशों को काय कहते हैं।
प्रश्न-३१५ कौन-कौन से द्रव्य अस्तिकाय हैं?
उत्तर-३१५ प्रारंभ के पाँच द्रव्य अस्तिकाय हैं, काल द्रव्य अस्ति रूप तो है किन्तु काय यानी बहुप्रदेशी न होने से
अस्तिकाय नहीं है।
प्रश्न-३१६ जीवद्रव्य मूर्तिक है या अमूर्तिक?
उत्तर-३१६ जीव द्रव्य संसार अवस्था में मूर्तिक और सिद्ध अवस्था में अमूर्तिक है।
प्रश्न-३१७ शेष पाँचों द्रव्यों में कौन मूर्तिक है और कौन अमूर्तिक?
उत्तर-३१७ पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है और शेष चार द्रव्य अमूर्तिक हैं।

शरीर और आत्मा का लक्षण


प्रश्न-३१८ शरीर कितने प्रकार के होते हैं उनके नाम बताओ?
उत्तर-३१८ शरीर पाँच प्रकार के होते हैं-१. औदारिक २. वैक्रियक ३. आहारक ४. तैजस और ५. कार्माण ।
प्रश्न-३१९ आत्माऐं कितने प्रकार की होती हैं भेद-प्रभेद बताओ?
उत्तर-३१९ आत्मा तीन प्रकार की होती है बहिरात्मा, अंतआत्मा और परमात्मा। बहिरात्मा-जो भोगों में फंसा हुआ शरीर में ममत्त्व रखता हुआ जीव और शरीर को एक मान लेता है वह बहिरात्मा है। अंतरात्मा तीन प्रकार की है अव्रती, व्रती और महाव्रती तथा परमात्मा के सकल और निकल ऐसे दो भेद हैं।
प्रश्न-३२० अन्तरात्मा का लक्षण बताओ?
उत्तर-३२० जो आत्मा और शरीर को भिन्न-भिन्न समझकर आत्मा को ज्ञानरूपी, अविनाशी और शरीर को अचेतन, नाशवान समझता है तथा शरीर से आत्मा को पृथक् करने का उपाय करता है वह परमात्मा है।
प्रश्न-३२१ परमात्मा किसे कहते हैं?
उत्तर-३२१ जो चार घातिया कर्मों का नाशकर परमेष्ठी हो चुके हैं अथवा आठों कर्मों से रहित सिद्ध परमेष्ठी हो चुके हैं वे परमात्मा कहलाते हैं, उन्हें जिनेन्द्र भगवान आदि कहते हैं।

तत्व का स्वरूप


प्रश्न-३२२ तत्त्व किसे कहते हैं?
उत्तर-३२२ वस्तु के यथार्थ स्वभाव को तत्त्व कहते हैं?
प्रश्न-३२३ उसके कितने भेद हैं?
उत्तर-३२३ उसके सात भेद हैं-जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष।
प्रश्न-३२४ जीव किसे कहते हैं?
उत्तर-३२४ जिसमें ज्ञान दर्शन रूप भाव प्राण और इंद्रिय, बल, आयु, श्वासोच्छवास रूप द्रव्य प्राण पाये जाते हैं वह जीव है।
प्रश्न-३२५ अजीव का लक्षण बताओ?
उत्तर-३२५ इसके विपरीत लक्षण वाला अजीव तत्त्व है अर्थात् जीव से भिन्न पाँचों द्रव्य अजीव हैं।
प्रश्न-३२६ आस्रव की परिभाषा भेद सहित बताओ?
उत्तर-३२६ रागदेषादि भावों के कारण आत्म प्रदेशों में आना आस्रव है। इसके दो भेद हैं-१. भाव आस्रव २. द्रव्य आस्रव।
प्रश्न-३२७ द्रव्यास्रव और भावास्रव की परिभाषा लिखो?
उत्तर-३२७ आत्मा के जिन भावों से कर्म आते हैं उन भावों को भावास्रव और पुद्गलमय कर्मपरमाणुओं के आने को द्रव्यास्रव कहते हैं।
प्रश्न-३२८ बंध का लक्षण और भेद बताओ?
उत्तर-३२८ आये हुए कर्मों का आत्मा के साथ एकमेक हो जाना बंध है उसके भी दो भेद हैं-१. भाव बंध २. द्रव्य बंध।
प्रश्न-३२९ भावबंध और द्रव्यबंध किसे कहते हैं उदाहारण सहित बताओ?
उत्तर-३२९ आत्मा के जिन परिणामों से कर्मबंध होता है वह भावबंध है और कर्म परमाणुओं का आत्मा के प्रदेशों में दूध-पानी के सदृश एकमेक हो जाना द्रव्य बंध है।
प्रश्न-३३० संवर क्या है? इसके भेद बताओ?
उत्तर-३३० आते हुए कर्मों का रुक जाना संवर है उसके दो भेद हैं-भावसंवर और द्रव्यसंवर।
प्रश्न-३३१ द्रव्यसंवर और भावसंवर का लक्षण बताओ?
उत्तर-३३१ जिन समिति, गुप्ति आदि भावों से कर्म रुक जाते हैं वह भाव संवर है और पुद्गलमय कर्मों का आगमन रुक जाना द्रव्य संवर है।
प्रश्न-३३२ मोक्ष क्या है? क्या इसके भी भेद हैं, अगर हैं तो कौन-कौन से हैं परिभाषा सहित लिखो?
उत्तर-३३२ सम्पूर्ण कर्मों का आत्मा से छूट जाना मोक्ष है इसके दो भेद हैं भाव मोक्ष व द्रव्य मोक्ष। आत्मा के जिन भावों से सम्पूर्ण कर्म अलग होते हैं वह भाव मोक्ष है और सम्पूर्ण कर्मों का आत्मा से छूट जाना द्रव्य मोक्ष है।
प्रश्न-३३३ नव पदार्थ कौन-कौन से हैं?
उत्तर-३३३ इन्हीं सात पदार्थों में पुण्य और पाप को मिला देने से नव पदार्थ कहलाते हैं।
प्रश्न-३३४ पुण्य किसे कहते हैं?
उत्तर-३३४ जो आत्मा को पवित्र करे या सुखी करे उसे पुण्य कहते हैं।
प्रश्न-३३५ पाप किसे कहते हैं?
उत्तर-३३५ जिसके उदय से जीव को दु:खदायक सामग्री मिले वह पाप है।
प्रश्न-३३६ संसार परिभ्रमण के कारण तत्त्व कौन-कौन से हैं।
उत्तर-३३६ आस्रव और बंध संसार के कारण हैं।
प्रश्न-३३७ मोक्ष के लिए कारण तत्त्व कौन से हैं?
उत्तर-३३७ संवर और निर्जरा मोक्ष के लिए कारण तत्त्व हैं।

इन्द्रिय और उनके भेद


प्रश्न-३८७ इन्द्रियाँ कितनी होती हैं उनके नाम लिखो?
उत्तर-३८७ इन्द्रियाँ ५ होती हैं उनके नाम क्रमश: इस प्रकार हैं-स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण।

प्रश्न-३८८ इन्द्रिय किसे कहते हैं?
उत्तर-३८८ संसारी जीव की पहिचान के चिन्ह को इंद्रिय कहते हैं।
प्रश्न-३८९ स्पर्शन इंद्रिय का लक्षण बताओ?
उत्तर-३८९ जिसके छू जाने पर हल्का, भारी, ठंडा, आदि ज्ञान होता है उसे स्पर्शन इंद्रिय कहते हैं।
प्रश्न-३९० रसना इंद्रिय का लक्षण बताओ?
उत्तर-३९० जिससे खट्टा, मीठा, कडुआ, चरपरा व कषायला रस जाना जाता है उसे रसना इंद्रिय कहते हैं?
प्रश्न-३९१ घ्राण इंद्रिय की परिभाषा बताओ?
उत्तर-३९१ जिससे सुगंध और दुर्गन्ध का ज्ञान होता है उसे घ्राण इंद्रिय कहते हैं।
प्रश्न-३९२ चक्षु इंद्रिय और कर्ण इंद्रिय का लक्षण बताओ?
उत्तर-३९२ जिससे काला, पीला, नीला, लाल, सफेद रंज जाना जाता है उसे चक्षु इंद्रिय कहते हैं। जिससे मनुष्य, पक्षु, पक्षी,
बादल, बाजे आदि की आवाज जानी जाती है उसे कर्ण इंद्रिय कहते हैं।
प्रश्न-३९३ हमारे कितनी इंद्रियाँ हैं?
उत्तर-३९३ हमारे पाँचों इंद्रिया हैं।
प्रश्न-३९४ तीन इंद्रिय जीव के कर्ण हैं या नहीं?
उत्तर-३९४ तीन इंद्रिय जीव के कर्णेन्द्रिय नहीं हैं।

दस प्राण-एक विवेचन


प्रश्न-४२५ प्राण क्या है?
उत्तर-४२५ जिसके सद्भाव से जीव में जीवितपने का और वियोग होने पर मरणपने का व्यवहार है उसको प्राण कहते हैं।
प्रश्न-४२६ प्राण के कितने भेद हैं उनके नाम बताओ?
उत्तर-४२६ प्राण के दस भेद हैं-स्पर्शन आदि पाँच इंद्रियाँ, मनोबल, वचनबल, कायबल, आयु और स्वासोच्छ्वास ये दस प्राण हैं।
प्रश्न-४२७ एकेन्द्रिय जीव के कितने प्राण होते हैं?
उत्तर-४२७ एकेन्द्रिय जीव के स्पर्शन इंद्रिय, कायबल, आयु और श्वासोच्छवास ये चार प्राण होते हैं।
प्रश्न-४२८ दो इंद्रिय जीव के कितने प्राण होते हैं?
उत्तर-४२८ दो इंद्रिय जीव के रसना इंद्रिय और वचनबल के बढ़ जाने से छह प्राण हो जाते हैं।
प्रश्न-४२९ तीन इंद्रिय और चार इंद्रिय जीव के कितने प्राण होते हैं?
उत्तर-४२९ तीन इंद्रिय जीव के स्पर्शन, रसना, घ्रास ये तीन इंद्रिय, वचनबल, कायबल, आयु और स्वासोच्छ्वास ये सात प्राण और चार इंद्रिय जीव इन सात प्राणों के अतिरिक्त एक चक्षु इंद्रिय बढ़ जाती है।
प्रश्न-४३० असैनी पंचेन्द्रिय और सैनी पंचेन्द्रिय के कितने प्राण होते हैं?
उत्तर-४३० असैनी पंचेन्द्रिय के ऊपर लिखे आठ प्राणों के अतिरिक्त एक कर्णेन्द्रिय बढ़कर ९ प्राण व सैनी पंचेन्द्रिय जीव के मनोबल के भी बढ़ जाने से दस प्राण होते हैं।
प्रश्न-४३१ किस गति में कितने प्राण होते हैं?
उत्तर-४३१ तिर्यंचगति में एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक सभी जीव होते हैं अत: चार प्राण से लेकर दसों प्राण तक होते हैं। देव, नारकी और मनुष्यों में दसों प्राण होते हैं।
प्रश्न-४३२ संज्ञा किसे कहते हैं?
उत्तर-४३२ जिनसे संक्लेशित होकर और जिनके विषय का सेवन करके यह जीव दोनों जन्म में दु:ख उठाता है, उसे संज्ञा कहते हैं।
प्रश्न-४३३ संज्ञा के कितने भेद हैं?
उत्तर-४३३ संज्ञा के चार भेद हैं-आहार, भय, मैथुन और परिग्रह।
प्रश्न-४३४ आहार संज्ञा किसे कहते हैं?
उत्तर-४३४ असाता वेदनीय के तीव्र उदय से या उदीरणा होने से इस जीव का जो भोजन की वांछा होती है वह आहार संज्ञा है।
प्रश्न-४३५ भय संज्ञा का लक्षण बताओ?
उत्तर-४३५ भयकर्म का तीव्र उदय या उदीरणा होने से जीव को जो भाग जाने, छिपने आदि की इच्छा होती है वह भय संज्ञा है।
प्रश्न-४३६ मैथुन संज्ञा की परिभाषा बताओ?
उत्तर-४३६ वदे कर्म का तीव्र उदय या उदीरणा आदि से तथा विट पुरुषों की संगति आदि से जो कामसेवन की इच्छा होती है वह मैथुन संज्ञा है।
प्रश्न-४३७ परिग्रह संज्ञा का लक्षण बताओ?
उत्तर-४३७ लोभ कर्म के तीव्र उदय या उदीरणा से वस्त्र, स्त्री, धन, धान्य आदि परिग्रह को ग्रहण करने की व उनके अर्जन आदि की इच्छा है या उनमें जो ममत्व परिणाम है वह परिग्रह संज्ञा है।
प्रश्न-४३८ क्या एकेन्द्रिय जीवों में ये चारों संज्ञाएँ हैं, अगर हैं तो कैसे?
उत्तर-४३८ हाँ, एकेन्द्रिय जीवों में ये चारों संज्ञाएँ हैं जैसे वृक्ष में भोजन की इच्छा है यदि खाद, पानी, हवा आदि न मिले तो वे सूख जाते हैं अर्थात् मर जाते हैं। भय भी है, लाजवंती का झाड़ छूते ही सिकुड़ जाता है। यदि वृक्ष की जड़ के पास धन गाड़ दिया जावे तो जड़ उसी तरफ को फैल जाती है।
प्रश्न-४३९ क्या हम इन संज्ञाओं को नष्ट कर सकते हैं?
उत्तर-४३९ हाँ, हम इन संज्ञाओं को नष्ट कर महापुरुष भगवान भी बन सकते हैं मात्र जरूरी है तो इन सबसे विरक्ति होने की।
प्रश्न-४४० पर्याप्ति किसे कहते हैं?
उत्तर-४४० जब यह जीव एक शरीर को छोड़कर (मरकर) दूसरे शरीर को ग्रहण करता है उस समय ग्रहण किये गये शरीर आदि के योग्य पुद्गल वर्गणाओं को शरीर या इंद्रिय आदि खप परिणमाने की जीव की शक्ति के पूर्ण हो जाने को पर्याप्ति कहते हैं।
प्रश्न-४४१ पर्याप्ति के कितने भेद हैं?
उत्तर-४४१ पर्याप्ति के छ: भेद हैं-आहार, शरीर, इंद्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन।
प्रश्न-४४२ एकेन्द्रिय जीव के कितनी पर्याप्तियाँ होती हैं?
उत्तर-४४२ एकेन्द्रिय जीव के प्रारंभ की चार पर्याप्तियाँ होती हैं।
प्रश्न-४४३ विकलत्रय, असैनी पंचेन्द्रिय तथा सैनी पंचेन्द्रिय के कितनी पर्याप्तियाँ होती हैं?
उत्तर-४४३ विकलत्रय व असैनी पंचेन्द्रिय की पाँच और सैनी पंचेन्द्रिय की छहों पर्याप्तियाँ होती हैं।
प्रश्न-४४४ पर्याप्तियों को पूर्ण होने में कितना समय लगता है?
उत्तर-४४४ सभी पर्याप्तियों को पूर्ण होने में अन्तमुहूर्त-४८ मिनट लगता है।
प्रश्न-४४५ माता के गर्भ में छहों पर्याप्तियाँ कितने मिनथ् में पूर्ण होती हैं?
उत्तर-४४५ मनुष्यों की माता के गर्भ में जल के बुलबुले के समान शरीर में आते ही ४८ मिनट के भीतर ही भीतर ये छहों पर्याप्तियाँ पूर्ण हो जाती हैं।
प्रश्न-४४६ अपर्याप्तक जीव किन्हें कहते हैं?
उत्तर-४४६ जिनकी पर्याप्तियाँ पूर्ण नहीं होती हैं और मर जाते हैं उनका शरीर पूरा ही नहीं बन पाता है वह अपर्याप्तक जीव हैं।
प्रश्न-४४७ दोइंद्रिय जीव के कितनी पर्याप्तियाँ होती हैं?
उत्तर-४४७ दो इंद्रिय जीव के पाँच पर्याप्तियाँ होती हैं, मन नहीं होता।
प्रश्न-४४८ मार्गणा किसे कहते हैं?
उत्तर-४४८ जिन भावों के द्वारा अथवा जिन पर्यायों में जीवों को अन्वेषण (खोज) किया जाय, उनको ही मार्गणा कहते हैं।
प्रश्न-४४९ ये कैसे होती हैं?
उत्तर-४४९ ये अपने-अपने कर्म के उदय से होती हैं।
प्रश्न-४५० मार्गणाएँ कितनी होती हैं उनके नाम बताओ?
उत्तर-४५० मार्गणाएँ चौदह होती हैं उनके नाम हैं-गति, इंद्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञित्व और आहार।
प्रश्न-४५१ गति मार्गणा किसे कहते हैं?
उत्तर-४५१ चारों गतियों में गमन करने के कारण को गति कहते हैं उसके चार भेद हैं-नरकगति, तिर्यग्गति, मनुष्यगति और देवगति।
प्रश्न-४५२ इंद्रिय मार्गणा वा काय मार्गणा का लक्षण बताओ?
उत्तर-४५२ जो इंद्र के समान हो अथवा आत्मा के लिंग को इंद्रिय कहते हैं। इसके ५ भेद हैं-स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण। त्रस और स्थावर नामकर्म के उदय से होन वाली आत्मा की पर्याय को काय कहते हैं इसके ६ भेद हैं-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु,
वनस्पति ओर त्रसकाय।
प्रश्न-४५३ योग किसे कहते हैं योग के १४ भेदों के नाम बताओ?
उत्तर-४५३ शरीर नाम कर्म के उदय से मन, वचन, काय से युक्त जीव को जो कर्मों को ग्रहण करने में कारणभूत शक्ति है उसको योग कहते हैं उसके १४ भेद निम्न हैं-सत्य, असत्य, उभय और अनुभय ये चार मनोयोग, इन्हीं सत्यादि के चार वचनयोग, औदारिक, औदारिक मिश्र, वैक्रियक, वैक्रियकमिश्र, आहारक, आहारकमिश्र और कार्मण ये सात काययोग।
प्रश्न-४५४ वेद मार्गणा किसे कहते हैं वेद के भेदों को बताते हुए द्रव्यवेद व भाववेद का लक्षण बताओ?
उत्तर-४५४ वेद नामक नोकषाय के उदय से उत्पन्न हुई जीव के मैथुन की अभिलाषा को भाव वेद कहते हैं और नामकर्म के उदय से अविर्भूत जीव के चिन्ह विशेष को द्रव्यवेद कहते हैं। वेद के ३ भेद हैं-स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद।
प्रश्न-४५५ कषाय मार्गणा का लक्षण बताते हुए उसके १६ भेद बताओ?
उत्तर-४५५ जो आत्मा के सम्यक्त्व, देशचारित्र, सकलचारित्र और यथाख्यातचारित्र रूप परिणामों को कषे-घाते, उसको कषाय कहते हैं उसके १६ भेद हैं-अनंतानुबंधी, क्रोध, मान, माया, लोभ। अप्रत्याख्यानादि क्रोध, मान, माया, लोभ। प्रत्ख्यानादि क्रोध, मान, माया, लोभ।
प्रश्न-४५६ ज्ञान मार्गणा का लक्षण बताओ?
उत्तर-४५६ जो त्रिकाल विषयक समस्त पदार्थों को जाने वह ज्ञान है अथवा आत्मा को जानने का गुण ज्ञान गुण है उसके ८ भेद हैं-मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल तथा कुमति, कुश्रुत, कुअवधि।
प्रश्न-४५७ संयम और दर्शन लेश्या की परिभाषा लिखो? इनके भेद बताओ?
उत्तर-४५७ व्रत धारण, समिति पालन, कषायनिग्रह, योगों का त्याग और इंद्रिय विजय को संयम कहते हैं। उसके ६ भेद है-सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्म सांपराय और यथाख्यात ये ५ संयम तथा देशसंयम और असंयम। सामान्य विशेषात्मक पदार्थ के केवल सामन्य अंश को ग्रहण करने वाला दर्शन है उसके चार भेद हैं-चक्षु दर्शन, अचक्षु दर्शन, अवधि दर्शन और केवलदर्शन।
प्रश्न-४५८ लेश्या मार्गणा का लक्षण बताते हुए उनके छ: भेदों को बताओ साथ ही यह भी बताओ कि उनमें से कौन शुभ और कौन अशुभ?
उत्तर-४५८ कषाय के उदय से अनुरंजित योग की प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं इनके छ: भेद हैं-कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म व शुक्ल। इनमें प्रारंभ की ३ अशुभ और शेष ३ शुभ हैं।
प्रश्न-४५९ भेद मार्गणा का लक्षण बताते हुए उनके भेदों का भी लक्षण लिखो?
उत्तर-४५९ जो मुक्ति प्राप्ति के योग्य है उसे भव्य कहते हैं भव्य मार्गणा के २ भेद हैं-भव्य और अभव्य। जिनकी सिद्धि होने वाली हो अथवा जो उसकी प्राप्ति के योग्य हों, उन्हें भव्य कहते हैं जो इन दोनों से अर्थात् मुक्ति की प्राप्ति की योग्यता से रहित हों वह अभव्य हैं।
प्रश्न-४६० सम्यक्त्व मार्गणा का लक्षण व भेद बताओ?
उत्तर-४६० निेन्द्र देव द्वारा कथित छह द्रव्यादि का श्रद्धान करना सम्यक्त्व है इस मार्गणा के छ: भेद हैं-उपशम सम्यक्त्व, क्षयोपशम सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सासादन और मिथ्यात्व।
प्रश्न-४६१ संज्ञा और आहार मार्गणा की परिभाषा लिखो?
उत्तर-४६१ नो इंद्रियावरण कर्म के क्षयोपशम को या उससे उत्पन्न ज्ञान को संज्ञा कहते हैं। यह संज्ञा जिसके हो उसको संज्ञी कहते हैं इस मार्गणा के दो भेद कहे हैं-संज्ञी व असंज्ञी। औदारिक आदि शरीर और पर्याप्ति के योग्य पुद्गलों के आहार ग्रहण करने को आहार कहते हैं इस मार्गणा के आहार और अनाहार ऐसे दो भेद हैं।
प्रश्न-४६२ चौदह मार्गणाओं के उत्तर भेद कितने हैं?
उत्तर-४६२ चौदह मार्गणाओं के उत्तर भेद ६ हैं।
प्रश्न-४६३ तुम्हारे कितनी मार्गणाएँ हैं?
उत्तर-४६३ हमारे १४ मार्गणएँ हैं।
प्रश्न-४६४ गुणस्थान किसे कहते हैं? गुणस्थान के भेद बताओ?
उत्तर-४६४ दर्शन मोहनीय आदि कर्मों की उदय, उपशम आदि अवस्था के होने पर जीव के जो परिणाम होते हैं, उन परिणामों को गुणस्थान कहते हैं। इनके १४ भेद हैं—१. मिथ्यात्व, २. सासादन, ३. मिश्र, ४. अविरत सम्यग्दृष्टि, ५. देशविरत, ६. प्रमत्तविरत, ७. अप्रमत्तविरत, ८. अपूर्वकरण, ९. अनिवृत्तिकरण, १०. सूक्ष्मसांपराय, ११. उपशांतमोह, १२. क्षीणमोह, १३. सयोगकेवली जिन और १४. अयोगकेवली जिन।
प्रश्न ४६५ ये किनके निमित्त से होते हैं?
उत्तर-४६५ ये गुणस्थान योग और मोह के निमित्त से होते हैं।
प्रश्न-४६६ मिथ्यात्व गुणस्थान किसे कहते हैं? क्या मिथ्यादृष्टि जीव सच्चा धर्म अच्छा लगता है?
उत्तर-४६६ मिथ्यात्त्व प्रकृति के उदय से होने वाले तत्त्वार्थ के अश्रद्धान को मिथ्यात्व गुणस्थान कहते हैं। मिथ्यादृष्टि जीव को कभी सच्चा धर्म अच्छा नहीं लगता।
प्रश्न-४६७ सासादन गुणस्थान का लक्षण बताओ?
उत्तर-४६७ उपशम सम्यक्त्व के अन्तर्मुहूर्त कल में जब कम एक समय या अधिक से अधिक छ: आवली प्रामण काल शेष रहे उतने काल में अनंतानुबंधी क्रोधादि चार कषाय में से किसी एक का उदय आ जाने से सम्यक्त्व की विराधना हो जाने पर सासादन गुणस्थान होता है।
प्रश्न-४६८ मिश्र गुणस्थान किसे कहते हैं?
उत्तर-४६८ सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से केवल सम्यक्त्व रूप परिणाम न होकर जो मिश्ररूप परिणाम होता है उसे मिश्र गुणस्थान कहते हैं।
प्रश्न-४६९ सम्यक्त्व के कितने भेद हैं उसकी परिभाषा लिखो?
उत्तर-४६९ दर्शनमोहनीय और अनंतानुबंधी कषाय के उपशम आदि के होने पर जीव को तो तत्त्वार्थ श्रद्धान रूप परिणाम होता है वह सम्यक्त्व के ३ भेद हैं-उपशम सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व और वेदक या क्षायोपशमिक सम्यक्त्व।
प्रश्न-४७० ये तीनों सम्यक्त्व किस प्रकार के होते हैं?
उत्तर-४७० दर्शन मोहनीय की ३ और अनंतानुबंधी की चार ऐसी सात प्रकृतियों के उपशम से उपशम और क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व होता है तथा सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से वेदक सम्यक्त्व होता है।
प्रश्न-४७१ अविरत सम्यग्दृष्टि किसे कहते हैं?
उत्तर-४७१ इस गुणस्थान वाला जीव जिनेन्द्र कथित प्रवचन का श्रद्धान है तथा इंद्रियों के विषय आदि से विरत नहीं हुआ है इसलिए सम्यग्दृष्टि कहलाता है।
प्रश्न-४७२ देशविरत गुणस्थान किसे कहते हैं?
उत्तर-४७२ सम्यग्दृष्टि अणुव्रत आदि एक देशव्रत रूप परिणाम को देशविरतगुणस्थान कहते हैं। देशव्रती जीव के प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से महाव्रत रूप पूर्ण संयम नहीं होता है।
प्रश्न-४७३ प्रमत्तविरत गुणस्थान किसे कहते हैं?
उत्तर-४७३ प्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षयोपशम से सकल संयम रूप मुनिव्रत तो हो चुके हैं किन्तु संज्वलन कषाय और नोकषाय के उदय से संयम में मल उत्पन्न करने वाला प्रमाद भी होता है अत: इस गुणस्थान को प्रमत्तविरत कहते हैं।
प्रश्न-४७४ अप्रमत्तविरत गुणस्थान का लक्षण बताओ?
उत्तर-४७४ संज्वलन कषाय और नोकषाय का मन्द उदय होने से संयमी मुनि के प्रमादरहित संयमभाव होता है तब यह अप्रमत्तविरत गुणस्थान होता है।
प्रश्न-४७५ इसके कितने भेद हैं उनकी परिभाषा लिखो?
उत्तर-४७५ इसके दो भेद हैं—स्रवस्थान अप्रमत्त और सातिशय अप्रमतत। जब मुनि शरीर और आत्मा के भेद विज्ञान में तथा ध्यान में लीन रहते हैं तब स्वस्थान अप्रमत्त होता है और जब श्रेणी के सम्मुख होते हुए ध्यान में प्रथम अध:प्रवृतकरण रूप परिणाम होता है तब सातिशय अप्रमत्त होता है।
प्रश्न-४७६ स्वस्थान अप्रमत्त और सातिशय अप्रमत्त में से आज कौन से परिणाम वाले मुनि हैं?
उत्तर-४७६ आजकल पंचमकाल में स्वस्थान अप्रमत्त मुनि हो सकते हैं सातिशय अप्रमत्त परिणाम वाले नहीं हो सकते हैं।
प्रश्न-४७७ अपूर्वकरण गुणस्थान किसे कहते हैं?
उत्तर-४७७ जिस समय भावों की विशुद्धि से उत्तरोत्तर अपूर्व परिणाम होते जायें अर्थात् भिन्न समयवर्ती मुनि के परिणाम विसदृश
ही हों, उसको अपूर्वकरण कहते हैं।
प्रश्न-४७८ अनिवृत्तिकरण गुणस्थान किसे कहते हैं?
उत्तर-४७८ जिस गुणस्थान में एक समयवर्ती नाना जीवों के परिणाम सदृश ही हों और भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम विसदृश ही हों, उसको अनिवृत्तिकरण कहते हैं।
प्रश्न-४७९ सूक्ष्मसांपराय व उपशांतमोह गुणस्थान का लक्षण बताओ?
उत्तर-४७९ अत्यन्त सूक्ष्म अवस्था को प्राप्त लोभ कषाय के उदय को अनुभव करते हुए जीव के सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान होता है और सम्पूर्ण मोहनीय कर्म के उपशम होने से अत्यंत निर्मल यथाख्यात चारित्र को धारण करने वाले मुनि के उपशांतमोह गुणस्थान होता है।
प्रश्न-४८० क्षीणकषाय गुणस्थान किसे होता है?
उत्तर-४८० मोहनीय कर्म के सर्वथा क्षय हो जाने से स्फटिक के निर्मल पात्र में रखे जल के सदृश निर्मल परिणाम वाले निग्रंथ मुनि को ही क्षीणकषाय नामक गुणस्थान होता है।
प्रश्न-४८१ सयोगकेवली जिन व अयोगकेवली जिन कौन कहलाते हैं?
उत्तर-४८१ घातिया कर्म की ४७, अघातिया कर्मों की १६ इस तरह ६३ प्रकृतियों के सर्वथा नाश हो जाने से केवलज्ञान प्रकट हो जाता है उस समय अनंत चतुष्टय और नवकेवल लब्धि प्रगट हो जाती है किन्तु योग पाया जाता हे इसलिए वे अरिहंत परमात्मा सयोगकेवली जिन कहलाते हैं तथा सम्पूर्ण योगों से रहित केवली भगवान अघाति कर्मों का अभाव कर मुक्त होने के सम्मुख हुए अयोगकेवली जिन कहलाते हैं। इस गुणस्थान में अरिहंत भगवान शेष ८४ प्रकृतियों को नष्ट करके सर्व कर्मरहित सिद्ध हो जाते हैं और एक समय में लोक के शिखर पर पहुँच जाते हैं।
प्रश्न-४८२ सम्यग्दृष्टि श्रावक का कौन सा गुणस्थान होता है?
उत्तर-४८२ सम्यग्दृष्टि श्रावक का चौथा गुणस्थान होता है।
प्रश्न-४८३ व्रतियों का कौन सा गुणस्थान होता है?
उत्तर-४८३ व्रतियों का पंचम गुणस्थान होता है।
प्रश्न-४८४ मुनियों का कौन सा गुणस्थान होता है?
उत्तर-४८४ मुनियों का छठां-सातवां गुणस्थान होता है।
प्रश्न-४८५ आर्यिकाओं का कौन सा गुणस्थान होता है?
उत्तर-४८५ आर्यिकाओं का पाँचवा गुणस्थान होता है।
प्रश्न-४८६ क्षुल्लक-क्षुल्लिकाओं का कौन सा गुणस्थान होता है?
उत्तर-४८६ क्षुल्लक-क्षुल्लिकाओं का भी पंचमगुणस्थान होता है।
प्रश्न-४८७ श्रेणी किसे कहते हैं?
उत्तर-४८७ जिन परिणामों से चारित्र मोहनीय की शेष २१ प्रकृतियों का क्रम से उपशम या क्षय किया जाता है उन परिणामों को श्रेणी कहते हैं।
प्रश्न-४८८ श्रेणी के कितने भेद हैं? उसको परिभाषित करो?
उत्तर-४८८ श्रेणी के दो भेद हैं-उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी। जहाँ मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का उपशम किया जाय वह उपशम श्रेणी है और जहाँ क्षय किया जाय वह क्षपक श्रेणी है।
प्रश्न-४८९ उपशम श्रेणी किस गुणस्थान में होती है?
उत्तर-४८९ आठवें से ग्यारहवें गुणस्थान तक उपशम श्रेणी होती है।
प्रश्न-४९० किस श्रेणी वाला जीव गिरता है?
उत्तर-४९० उपशम श्रेणी वाला जीव नियम से नीचे गिरता है।
प्रश्न-४९१ क्षपक श्रेणी के कौन-कौन से गुणस्थान हैं?
उत्तर-४९१ आठवें, नवें, दसवें और बारहवें गुणस्थान में क्षपक श्रेणी होती है।
प्रश्न-४९२ क्षपक श्रेणी वाला जीव क्यों नहीं गिरता है?
उत्तर-४९२ इसमें चढ़ने वाला जीव नियम से घातिया कर्मों का नाशकर केवली भगवान हो जाता है।
प्रश्न-४९३ जीव समास किसे कहते हैं उनके भेद बताओ?
उत्तर-४९३ जिनके द्वारा अनेक जीव संग्रह किये जाऐं उन्हें जीव समास कहते हैं। जीव समास के १४ भेद हैं-एकेन्द्रिय के बादर और सूक्ष्म ऐसे दो भेद, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय के सैनी-असैनी ऐसे दो भेद, इस प्रकार सात भेद हो जाते हैं इन्हें पर्याप्त अपर्याप्त ऐसे दो गुणा करने पर जीव समास के १४ भेद हो जाते हैं।
प्रश्न-४९४ इन भेदों में से किनमें बादर और किनमें सूक्ष्म जीव पाये जाते हैं?
उत्तर-४९४ एकेन्द्रिय के पृथ्वी आदि पाँचों भेदों में बादर और सूक्ष्म भेद पाये जाते हैं, बाकी के सभी त्रस जीव बादर ही होते हैं।
प्रश्न-४९५ किस कर्म के उदय से बादर जीव होते हैं?
उत्तर-४९५ बादर नामकर्म के उदय से बादर जीव होते हैं।
प्रश्न-४९६ बादर किसे कहते हैं?
उत्तर-४९६ जो शरीर दूसरे को रोकने वाला हो अथवा जो स्वयं दूसरे से रूके, उसको बादर कहते हैं। दिखने वाले पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति ये सब बादर जीव के शरीर है। दिखने वाले पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति ये सब बादर जीव के शरीर हैं।
प्रश्न-४९७ सूक्ष्म जीव किस कर्म के उदय से होते हैं?
उत्तर-४९७ सूक्ष्म नामकर्म के उदय से सूक्ष्म जीव होते हैं।
प्रश्न-४९८ सूक्ष्म जीव के लक्षण बताओ?
उत्तर-४९८ जो शरीर दूसरे को न तो रोके और न स्वयं से रूके उसको सूक्ष्म शरीर कहते हैं।
प्रश्न-४९९ सूक्ष्म जीव कहाँ रहते हैं?
उत्तर-४९९ सूक्ष्म जीव तीन लोक में सर्वत्र ठसाठस भरे हुए हैं जैसे कि तिल में तेल भरा हुआ है। सूक्ष्म जीव सर्वत्र निराधार हैं।
प्रश्न-५०० योनि किसे कहते हैं? उसके भेद बताओ?
उत्तर-५०० जन्म लेने के आधार स्थान को योनि कहते हैं उसके दो भेद होते हैं-१. आकारयोनि २. गुणयोनि।
प्रश्न-५०१ शंखावर्त, कूर्मोन्नत व वंशपत्र योनि किसे कहते हैं?
उत्तर-५०१ शंखावर्त योनि में गर्भ नहीं रहता है। जिससे तीर्थंकर आदि महापुरुष जन्म लेते हैं वह कर्मोन्नत योनि योनि है और साधारण पुरुष जिससे जन्म लें वह वंशपत्र योनि कहलाती है।
प्रश्न-५०२ गुणयोनि के कितने भेद हैं?
उत्तर-५०२ गुणयोनि के नौ भेद हैं-सचित्र, शीत, संवृत, अचित्त, उष्ण, विवृत, सचित्ताचित्र, शीतोष्ण व संवृत-विवृत। गुणयोनि के विस्तार से चौरासी लाख भेद भी होते हैं।
प्रश्न-५०३ तुम्हारा जन्म किस योनि से हुआ है?
उत्तर-५०३ हमारा जन्म वंशपत्र योनि से हुआ है।
प्रश्न-५०४ चौरासी लाख योनियों के भेद गिनाओ?
उत्तर-५०४ नित्य निगोद, इतर निगोद, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु इनमें से प्रत्येक की सात-सात लाख, प्रत्येक वनस्पति की १० लाख, दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चार इंद्रिय इनमें से प्रत्येक की २-२ लाख। देव, नारकी, तिर्यंच, पंचेन्द्रिय इनमें से प्रत्येक की चार-चार लाख और मनुष्य की १४ लाख। ऐसे सब मिलाकर ८४ लाख योनियाँ होती हैं।
प्रश्न-५०५ जन्म किसे कहते हैं तथा इसके कितने भेद हैं?
उत्तर-५०५ एक शरीर को छोड़कर दूसरा शरीर ग्रहण करना जन्म कहलाता है, जन्म के तीन भेद हैं-सम्मूर्छन, गर्भ और उपपाद।
प्रश्न-५०६ सम्मूच्र्छन जन्म किसे कहते हैं?
उत्तर-५०६ माता-पिता के रजवीर्य के बिना ही शरीर योग्य पुद्गल परमाणुओं द्वारा शरीर की रचना हो जाता सम्मूर्छन जन्म है।
प्रश्न-५०७ गर्भ जन्म का लक्षण बताओ?
उत्तर-५०७ माता के गर्भ में रज और वीर्य के मिलने से जो शरीर की रचना होती है उसे गर्भ जन्म कहते हैं।
प्रश्न-५०८ उपपाद जन्म किसे कहते हैं?
उत्तर-५०८ माता-पिता से रजोवीर्य के बिना ही निश्चिय स्थान पर पुद्गल परमाणुओं से शरीर बन जाना उपपाद जन्म है।
प्रश्न-५०९ किन जीवों के कौन सा जन्म होता है?
उत्तर-५०९ देव और नारकी के उपपाद जन्म होता है। एकेन्द्रिय से लेकर चार इंद्रिय तक जीव सम्मूर्छन ही होते हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के कुछ सम्मूर्छन होते हैं, कुछ गर्भ जन्म वाले होते हैं। मनुष्य गर्भजन्म वाले होते हैं किन्तु लब्धपर्याप्तक मनुष्य होते हैं, वे दिखते नहीं हैं।
प्रश्न-५१० गर्भ जन्म के कितने भेद हैं?
उत्तर-५१० गर्भ जन्म के तीन भेद हैं—जरायुज, अण्डज और पोतज।
प्रश्न-५११ जरायुज किसे कहते हैं?
उत्तर-५११ जन्म के समय शरीर पर रुधिर तथा मांस की खोल सी लिपटी रहती है उसे जरायु या जेर कहते हैं। उससे जो भी उत्पन्न होते हैं वे जरायुज हैं जैसे-गाय, भैंस, मनुष्य आदि।
प्रश्न-५१२ अण्डज और पोतज में क्या अंतर है?
उत्तर-५१२ जो जीव अण्डे से उत्पन्न हों वह अण्डज हैं जैसे—कबूतर, चिड़ियाँ आदि और पैदा होते समय जिनके शरीर पर कोई आवरण नहीं रहता है जो जन्मते ही चलने-फिरने लगते हैं वे पोत जन्म वाले हैं। जैसे-हरिण, सिंह आदि।
प्रश्न-५१३ तुम्हारा कौन सा जन्म है?
उत्तर-५१३ हमारा जन्म जरायुज है।
प्रश्न-५१४ अवगाहना किसे कहते हैं?
उत्तर-५१४ शरीर की ऊँचाई को अवगाहना कहते हैं।
प्रश्न-५१५ पंचेन्द्रियों में से किन्हीं एक-एक की अवगाहना बताओ?
उत्तर-५१५ एकेन्द्रिय में कमल की कुछ अधिक एक हजार योजन, द्वीन्द्रिय में शंख की बाहर योजन, तीन इंद्रिय में चींटी की तीन कोश, चार इंद्रिय में भ्रमर की एक योजन और पंचेन्द्रिय में महामत्स्य के शरीर की अवगाहना एक हजार धनुष होती है।
प्रश्न-५१६ सबसे उत्कृष्ट अवगाहना किसकी है?
उत्तर-५१६ सबसे उत्कृष्ट अवगाहना महामत्स्य की है।
प्रश्न-५१७ मनुष्यों की सबसे बड़ी अवगाहना व सबसे छोटी अवगाहना कितनी है?
उत्तर-५१७ मनुष्यों की सबसे बड़ी अवगाहना सवा पाँच सौ धनुष की और सबसे छोटी एक हाथ की होती है।
प्रश्न-५१८ एक योजन में कितने मील व एक धनुष में कितने हाथ होते हैं?
उत्तर-५१८ एक योजन में आइ मील एवं एक धनुष में चार हाथ होते हैं।
प्रश्न-५१९ पाँचों इंद्रियों के जीवों की जघन्य अवगाहना कितनी है?
उत्तर-५१९ पाँचों इंद्रियों के जीवों की जघन्य अवगाहना घनांगुल के असंख्यातवें भाग मात्र होती है।
प्रश्न-५२० शंख आदि जीवों की सबसे बड़ी अवगाहना कहाँ है?
उत्तर-५२० शंख आदि जीवों की सबसे बड़ी अवगाहना इस जम्बूद्वीप से असंख्यात द्वीप समुद्रों के बाद होने वाले अंतिम स्वयभूरमण द्वीप और समुद्र के जीवों में होती है।
प्रश्न-५२१ मनुष्य का सबसे बड़ा और सबसे छोटा शरीर किस काल में होता है?
उत्तर-५२१ मनुष्य का सबसे बड़ा शरीर चतुर्थ काल के आदि में और सबसे छोटा शरीर छठे काल में होता है।
प्रश्न-५२२ प्रमाण किसे कहते हैं?
उत्तर-५२२ ‘सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम्’ सच्चे ज्ञान को प्रमाण कहते हैं अथवा जो वस्तु के सर्वदेश को जानता है उस ज्ञान को प्रमाण कहते हैं।
प्रश्न-५२३ ज्ञान के कितने भेद हैं?
उत्तर-५२३ ज्ञान के ५ भेद हैं—मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञान।
प्रश्न-५२४ इनमें से कितने ज्ञान परोक्ष व कितने प्रत्यक्ष हैं?
उत्तर-५२४ इनमें से मति, श्रुत ज्ञान परोक्ष व बाकी के तीन प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।
प्रश्न-५२५ कौन से ज्ञान विकल प्रत्यक्ष और कौन से सकल प्रत्यक्ष हैं?
उत्तर-५२५ इनमें से अवधि, मन:पर्यय विकल प्रत्यक्ष है तथा केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है।
प्रश्न-५२६ मति ज्ञान किसे कहते हैं तथा इसके कितने भेद हैं?
उत्तर-५२६ इंद्रिय और मन की सहायता से जो पदार्थों का ज्ञान होता है उसे मतिज्ञान कहते हैं। इसके ४ भेद हैं-अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा।
प्रश्न-५२७ दर्शन किसे कहते हैं?
उत्तर-५२७ वस्तु के सत्ता मात्र ग्रहण को दर्शन कहते हैं।
प्रश्न-५२८ अवग्रह व ईहा में क्या अंतर है?
उत्तर-५२८ दर्शन के बाद हुए शुक्ल, कृष्ण आदि विशेष ज्ञान को अवग्रह कहते हैं जैसे नेत्र से सफेद वस्तु को जानना और
अवग्रह से ज्ञान पदार्थ में विशेष जानने की इच्छा ईहा है। जैसे-यह सफेद रूप वाली वस्तु बगुला है या पताका?
प्रश्न-५२९ अवाय और धारणा की परिभाषा लिखो?
उत्तर-५२९ विशेष चिन्हों द्वारा निर्णय हो जाने को अवाय कहते हैं जैसे-पंख फड़फड़ाना आदि से बगुले का निश्चय होना। ज्ञान विषय को कालांतर में नहीं भूलने को धारणा कहते हैं।
प्रश्न-५३० इन चार भेदों की अपेक्षा से मतिज्ञान के कितने भेद हो जाते हैं?
उत्तर-५३० इन चार भेदों की अपेक्षा से मतिज्ञान के ३३६ भेद हो जाते हैं।
प्रश्न-५३१ श्रुतज्ञान किसे कहते हैं इनके मूल भेद कितने हैं?
उत्तर-५३१ मतिज्ञान से जाने हुए पदार्थ का जो विशेष रूप से ज्ञान होता है उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। यह मतिज्ञान पूर्वक होता है। इसके मूल में दो भेद हैं-अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट।
प्रश्न-५३२ अंगबाह्य व अंगप्रविष्ट के कितने भेद हैं?
उत्तर-५३२ अंगबाह्य के वंदना, सामायिक आदि अनेक भेद हैं और अंगप्रविष्ट के बाहर भेद हैं—आचारंग, सूत्रकृतांग, स्थानांग,समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञातृधर्मकथांग, उपासकाध्ययनांग, अंत:कृद्दशांग, अनुत्तरोपपादिकदशांग, प्रश्नव्याकरणांग, विपाकसूत्रांग और दृष्टिवादांग ये द्वादशांग कहलाते हैं।
प्रश्न-५३३ अवधिज्ञान व मन:पर्यय ज्ञान में भेद बताओे? साथ ही इन दोनों के भेद बताओ?
उत्तर-५३३ मर्यादा लिए हुए रूपी पदार्थ का इंद्रियादि की सहायता बिना जो ज्ञान होता है उसे अवधिज्ञान कहते हैं इसके दो भेद हैं-भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय और भव ही जिसमें निमित्त हो वह भवप्रत्यय है। जो व्रत, नियम आदि से, कर्म के क्षयोपशम से होता है वह गुणप्रत्यय है। काल आदि की मर्यादा लिए हुए परकीय मनोगत रूपी पदार्थ को जो ज्ञान होता है उसे मन:पर्यय कहते हैं। इसके दो भेद हैं-श्रजुमती व विपुलमती।
प्रश्न-५३४ भवप्रत्यय अवधिज्ञान किनको होता है?
उत्तर-५३४ भवप्रत्यय अवधिज्ञान देव और नारकी को होता है।
प्रश्न-५३५ गुणप्रत्यय अवधिज्ञान किनको होता है?
उत्तर-५३५ गुणप्रत्यय अवधिज्ञान मनुष्य और तिर्यंच को होता है।
प्रश्न-५३६ केवल ज्ञान किसे कहते हैं?
उत्तर-५३६ सब द्रव्यों को तथा उसकी सर्वपर्यायों को एक साथ स्पष्ट जानने वाले ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं। यह ज्ञान लोकालोकाप्रकाशी है।
प्रश्न-५३७ वर्तमान में कितने ज्ञान यहाँ हो सकते हैं?
उत्तर-५३७ वर्तमान में यहाँ मति और श्रुत ये दो ज्ञान हो सकते हैं।
प्रश्न-५३८ न्यायग्रंथों में प्रमाण के कितने भेद बताये हैं?
उत्तर-५३८ न्यायग्रंथों में भी प्रमाण के प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे दो भेद किये हैं।
प्रश्न-५३९ उसमें प्रत्यक्ष के व परोक्ष के कितने भेद हैं?
उत्तर-५३९ उसमें प्रत्यक्ष के सांव्यवहारिक और पारमार्थिक दो भेद हैं तथा सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष से मतिज्ञान को लिया है और पारमार्थिक प्रत्यक्ष के विकल-सकल दो भेद करके विकल में अवधि मन:पर्यय को और सकल में केवलज्ञान को लिया है। परोक्ष
प्रमाण के स्मृति, प्रत्यभिधान, तर्क, अनुमान और आगम ऐसे पाँच भेद किये हैं। उनमें से आगम प्रमाण में श्रुतज्ञान को लिया है।
प्रश्न-५४० नय किसे कहते हैं? नय के कितने भेद हैं?
उत्तर-५४० वस्तु के एक देश जानने वाले ज्ञान को नय कहते हैं उसमें मूल में तो दो भेद हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। वैसे नय के सात भेद हैं-नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत।
प्रश्न-५४१ द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नय में क्या अंतर है?
उत्तर-५४१ जो नय द्रव्य को जानता है वह द्रव्यार्थिक है, जो पर्याय को जानता है वह पर्यायार्थिक नय है।
प्रश्न-५४२ अध्यात्मभाषा से नय के भेद व उनके लक्षण बताओ?
उत्तर-५४२ अध्यात्मभाषा से भी नय के २ भेद हैं-निश्चयनय और व्यवहारनय। वस्तु के स्वभाव को कहने वाला निश्चयनय है। कर्म के निमित्त होने वाले औपाधिक भाव को ग्रहण करने वाला व्यवहारनय है।
प्रश्न-५४३ निश्चयनय और व्यवहारनय की अपेक्षा से जीव कैसा है?
उत्तर-५४३ निश्चयनय की अपेक्षा से संसारी जीव भी चैतन्यमय प्राणों वाला है, सकल विमल केवलज्ञान केवलदर्शन रूप है, अमूर्तिक है, अपने ही शुद्ध भावों का कत्र्ता है, आकार सहित, असंख्यात लोकप्रमाण प्रदेश वाला है, अपना अनंतज्ञान सुख आदि गुणों का भोक्ता है, शुद्ध है, सिद्ध है और स्वभाव से उद्र्धगमन करने वाला है। व्यवहारनय की अपेक्षा से जीव दस प्राणों से जीवित रहने वाला है। मति ज्ञानावरण आदि कर्म क्षयोपशम के अनुसार मति श्रुत आदि क्षयोपशम ज्ञानसहित है, कर्मबंध से सहित होने से मूर्तिक है, ज्ञानावरण आदि पुद्गल द्रव्य कर्मों का कत्र्ता है, नामकर्म के उदय से प्राप्त हुए छोटे या बड़े शरीर में ही रहने वाला है क्योंकि आत्मा के प्रदेशों का संकोच या विस्तार हो जाता है।
प्रश्न-५४४ किसके उदय से जीव भोक्ता है, किसकी प्राप्ति से अशुद्ध है व किसलिए संसारी है?
उत्तर-५४४ कर्म के उदय से प्राप्त सुख-दु:ख को भोक्ता है, गुणस्थान, मार्गणा आदि को प्राप्त होने से अशुद्ध है व संसार में परिभ्रमण करने से संसारी है।
प्रश्न-५४५ स्याद्वाद किसे कहते हैं?
उत्तर-५४५ स्याद्-कथंचित् रूप से ‘वाद’-कथन करने वाले को स्याद्वाद कहते हैं। यह सर्वथा एकान्त का त्याग करने वाला और कथंचित् शब्द के अर्थ को कहने वाला है जैसे जीव कथंचित् नित्य है और कथंचित् अनित्य है।
प्रश्न-५४६ स्याद्वाद किसकी अपेक्षा रखता है?
उत्तर-५४६ स्याद्वाद सप्तभंग और नयों की अपेक्षा रखता है।
प्रश्न-५४७ सप्तभंगी का लक्षण और नाम बताओ?
उत्तर-५४७ प्रश्न के निमित्त से एक ही वस्तु में अविरोध रूप विधि और प्रतिषेध की कल्पना सप्तभंगी है। जैसे-१. स्यात् अस्ति, २. स्यात् नास्ति, ३. स्यात् अस्तिनास्ति, ४. स्यात् अव्यक्तत्य, ५. स्यात् नास्ति अवक्तव्य, ६. स्यात् अस्ति नास्ति अवक्तव्य।
प्रश्न-५४८ सप्त भंगी को आत्मा में कैसे घटित करेंगे?
उत्तर-५४८ सप्तभंगी को आत्मा मेें इस प्रकार घटित करेंगे-मेरी आत्मा कथंचित्- अपने स्वरूप से अस्तिरूप है। मेरी आत्मा कथंचित् पद अचेतन आदि परस्वरूप से ‘नास्तिरूप’ है। मेरी आत्मा कथंचित् स्वपर स्वरूपादि से एक साथ न कही जा सकने से अवक्तव्य है। मेरी आत्मा कथंचित् स्वरूप से अस्तिरूप और एक साथ दोनों धर्मों को नहीं सकने से ‘अस्तिअव्यक्तव्य’ है। मेरी आत्मा स्वपर स्वरूप से क्रम से कही जाने से और दोनों धर्मों को एक साथ नहीं कहे जा सकने से अस्ति-नास्ति ‘अव्यक्तव्य’ है।
प्रश्न-५४९ सप्तभंगी कहाँ घटित होते हैं?
उत्तर-५४९ प्रत्येक वस्तु के प्रत्येक धर्मों में ये सात भंग घटित होते हैं।
प्रश्न-५५० अनेकांत किसे कहते हैं? उदाहरण देकर समझाओ?
उत्तर-५५० प्रत्येक वस्तु में अस्तित्व, नास्तित्व, एक, अनेक भेद, अभेद आदि अनंत धर्म पाये जाते हैं अनेक अंत (धर्म) को कहने
वाला अनेकांत है। जैसे-जिनदत्त सेठ किसी का पिता हे, किसी का पुत्र है, किसी का चाचा है, किसी का भतीजा है। पिता, पुत्र भाई, भतीजा, चाचा आदि अनेक धर्म उसमें मौजूद हैं। जिसका पिता है, उसी का पुत्र नहीं है किन्तु पुत्र का पिता है और अपने पिता कापुत्र है वैसे ही प्रत्येक वस्तु जिस रूप से अस्तिरूप है उसी रूप से नास्तिरूप नहीं है किन्तु अपने स्वरूप से अस्तिरूप और पररूप से नास्तिरूप है। यह अनेकांत संशय रूप या छल रूप नहीं है वन् अपनी-अपनी अपेक्षा से वस्तु के यथार्थ धर्म को कहने वाला है। यही अनेकांत है।
प्रश्न-५५१ अनेकांत को जैन धर्म के लिए क्या माना है?
उत्तर-५५१ अनेकांत को जैन धर्म का प्राण माना है।
प्रश्न-५५२ उपयोग के कितने भेद हैं?
उत्तर-५५२ उपयोग के दो भेद हैं-१. ज्ञानोपयोग २. दर्शनोपयोग।
प्रश्न-५५३ ज्ञानोपयोग के कितने भेद हैं?
उत्तर-५५३ ज्ञानोपयोग के आठ भेद हैं-मति, श्रुत, अवधि, मन: पर्यय और केवलज्ञान तथा कुमति, कुश्रुत व कुअवधि ये तीन अज्ञान।
प्रश्न-५५४ दर्शनोपयोग के कितने भेद हैं उनके नाम बताओ?
उत्तर-५५४ दर्शनोपयोग के चार भेद हैं-चक्षु दर्शन, अचक्षु दर्शन, अवधि दर्शन व केवल दर्शन।
प्रश्न-५५५ ध्यान किसे कहते हैं?
उत्तर-५५५ किसी एक विषय में चित्त को रोकना ध्यान है।
प्रश्न-५५६ ध्यान के कितने भेद हैं उनके नाम बताओ?
उत्तर-५५६ ध्यान के चार भेद हैं-आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान।
प्रश्न-५५७ आर्तध्यान किसे कहते हैं तथा इसके कितने भेद हैं?
उत्तर-५५७ दु:ख में होने वाले ध्यान को आर्तध्यान कहते हैं इसके चार भेद हैं-इष्टवियोगज, अनिष्ट संयोगज, पीड़ाजन्य और निदान आर्तध्यान।
प्रश्न-५५८ इष्ट वियोगज आर्तध्यान व अनष्टि संयोगज आर्तध्यान में भेद बताओ?
उत्तर-५५८ इष्ट का वियोग हो जाने पर बार-बार चिंतवन इष्टवियोगज का संयोग हो जाने पर बार-बार उससे दूर होने का सोचना अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान है।
प्रश्न-५५९ पीड़ाजन्य आर्तध्यान और निदान जन्य आर्तध्यान का लक्षण बताओ?
उत्तर-५५९ शरीर के रोग की पीड़ा होने से बार-बार दूर होने का सोचना पीड़ाजन्य आर्तध्यान है। आगामी काल में सुखों की इच्छा करना ‘इस व्रत के फल से मैं राजा हो जाऊँ’ आदि सोचना निदान आर्तध्यान है।
प्रश्न-५६० रौद्रधर्म किसे कहते हैं उनके भेद बताते हुए उनकी परिभाषा लिखो?
उत्तर-५६० व्रूर परिणामों से होने वाला ध्यान रौद्रध्यान है। इसके चार भेद हैं-हिंसा में आनंद मानना हिंसानंदी रौद्रध्यान है, झूठ बोलने में आनंद मानना मृषानंदी रौद्रध्यान है। चोरी में आनंद मानना चौर्यानंदी रौद्रध्यान है। परिग्रह के अतिसंग्रह में आनंद मानना परिग्रहानंदी रौद्रध्यान है।
प्रश्न-५६१ धर्मध्यान किसे कहते हैं?
उत्तर-५६१ धर्म विशिष्ट ध्यान को धर्म ध्यान कहते हैं।
प्रश्न-५६२ धर्मध्यान के कितने भेद होते हैं? नाम बताओ?
उत्तर-५६२ धर्मध्यान के भी चार भेद होते हैं—आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय तथा संस्थानविचय धर्मध्यान।
प्रश्न-५६३ आज्ञाविचय धर्मध्यान और अपाय विचय धर्मध्यान में क्या अंतर है?
उत्तर-५६३ युक्ति और उदाहरण की गति न होने पर आगम की प्रमाणता से वस्तु के श्रद्धान का विचार करना आज्ञाविचय धर्मध्यान और संसार में भटकते हुए जीव कैसे मोक्षमार्ग में लगें या कैसे भी हों, मैं इन्हें मोक्षमार्ग में लगा दूँ ऐसा चिंतवन करना अपायविचय धर्मध्यान है।
प्रश्न-५६४ विपाक विचय धर्मध्यान का लक्षण बताओ?
उत्तर-५६४ कर्मों के उदय से सुख दु:ख होता है इत्यादि चिंतवन करना विपाक विचय धर्मध्यान है।
प्रश्न-५६५ संस्थानविचय धर्मध्यान का लक्षण व भेद बताओ?
उत्तर-५६५ लोक के आकार का विचार करना संस्थानविचय धर्मध्यान है इसके चार भेद हैं-पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत।
प्रश्न-५६६ ध्यान के चार विकल्प कौन से हैं?
उत्तर-५६६ ध्यान के चार विकल्प हैं-ध्यान, ध्याता, ध्येय और ध्यान का फल।
प्रश्न-५६७ शुक्ल ध्यान किसे कहते हैं, उसके कितने भेद हैं?
उत्तर-५६७ शुद्ध ध्यान को शुक्ल ध्यान कहते हैं इसके भी चार भेद हैं—१. पृथक्त्ववितर्क, २. एकत्ववितर्क, ३.सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती, ४. व्युपरक्रियानिवृत्ति।
प्रश्न-५६८ कौन से शुक्लध्यान मुनियों को व कौन से केवली भगवान को होते हैं?
उत्तर-५६८ इनमें से पहले के दो शुक्लध्यान श्रेणी में चढ़ने वाले मुनियों को होते हैं और शेष दो शुक्ल ध्यान केवली भगवान के होते हैं।
प्रश्न-५६९ जीव का लक्षण क्या है उसके कितने भेद हैं?
उत्तर-५६९ जीव का लक्षण है चेतना। इसके दो भेद हैं-ज्ञान और दर्शन।
प्रश्न-५७० आत्मा का स्वभाव क्या है तथा इस आत्मा में कौन से गुण भरे हैं?
उत्तर-५७० आत्मा का स्वभाव जानना और देखना है तथा इस आत्मा में अनंतज्ञान, अनंतसुख, अनंतवीर्य आदि गुण भरे हुए हैं।
प्रश्न-५७१ क्या आत्मा के जन्म, मरण इत्यादि होेते हैं?
उत्तर-५७१ नही, आत्मा के जन्म, मरण, बुढ़ापा, रोग, शोक कुछ भी नहीं है।
प्रश्न-५७२ क्या आत्मा में कोई वेद है?
उत्तर-५७२ नहीं, आत्मा में स्त्री पुरुष, नपुंसक आदि कोई वेद नहीं है।
प्रश्न-५७३ क्या आत्मा की कोई गति है?
उत्तर-५७३ नहीं, आत्मा की मनुष्य, देव आदि कोई गति नहीं है।
प्रश्न-५७४ आत्मा कहाँ विराजमान है?
उत्तर-५७४ देहरूपी देवालय में यह भगवान आत्मा विराजमान है।
प्रश्न-५७५ शरीर का क्या लक्षण है?
उत्तर-५७५ यह शरीर अत्यंत अपवित्र सात धातु और उपधातु से बना हुआ है। नष्ट होने वाला है, अचेतन है, ज्ञान-दर्शन से शून्य है, जन्म-मरण से युक्त है तथा स्त्री पुरुषादि अवस्थायें, मनुष्य आदि शरीर धारण करता है जो कि पुद्गल की पर्यायें हैं।
प्रश्न-५७६ शरीर से ममता कैसे घटती है?
उत्तर-५७६ जब यह जीव दृढ़ श्रद्धान करके बार-बार अपने स्वरूप का विचार करता है तब शरीर से उसकी ममता घटती जाती है और वह चारित्र धारण कर कठिन से कठिन तपश्चरण करके कर्मों का नाशकर पूर्ण सुखी हो जाता है।
प्रश्न-५७७ जब देहरूपी देवालय में यह आत्मा भगवान रूप में है फिर तपश्चरण की क्या जरूरत है?
उत्तर-५७७ जैसे दूध में घी है यह विश्वासकर दही बिलोकर मक्खन निकालकर तपाकर उसका घी निकाला जाता है ऐसे ही प्रत्येक जीव के शरीर में भगवान आत्मा शक्ति रूप से मौजूद है जिसे सम्यक् चारित्र और तप के द्वारा उस आत्मा में लगे हुए कर्मों को हटाकर आत्मा के अनंत गुणों को प्रकट कर परमात्मा बनाया जाता है।
प्रश्न-५७८ संसारी अवस्था में आत्मा को परमात्मा मानने वाले को हम क्या संज्ञा दे सकते हैं?
उत्तर-५७८ संसारी अवस्था में आत्मा को परमात्मा मानने वाले को हम मिथ्यादृष्टि की संज्ञा में लेते हैं।
प्रश्न-५७९ क्या व्यवहार नय झूठा है?
उत्तर-५७९ निश्चय नय जब व्यवहारनय की अपेक्षा करता है तब वह सच्चा है और व्यवहारनय जब निश्चयनय की अपेक्षा करता है तब वह सच्चा है अन्यथा एक नय के हठ को पकड़ने से जीव मिथ्यादृष्टि बन जाते हैं।
प्रश्न-५८० संसार किसे कहते हैं?
उत्तर-५८० ‘‘चतुर्गतौ संसरणं संसार:’’ चतुर्गति में संसरण करना-परिभ्रमण करना इसका नाम संसार है।
प्रश्न-५८१ संसारी किसे कहते हैं?
उत्तर-५८१ ‘संसार एशां सन्ति ते संसारिण:’ यह संसार जिन जीवों के पाया जाता है वे संसारी कहलाते हैं।
प्रश्न-५८२ संसार के कितने भेद हैं उनके नाम बताओ?
उत्तर-५८२ संसार के पाँच भेद हैं उनके नाम हैं-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव। इन्हें परिवर्तन भी कहते हैं।
प्रश्न-५८३ द्रव्य संसार के दो भेद कौन से हैं?
उत्तर-५८३ द्रव्य संसार के दो भेद हैं-१. कर्म द्रव्य परिवर्तन। २. नोकर्म द्रव्य परिवर्तन।
प्रश्न-५८४ कर्मद्रव्य परिवर्तन के कौन-कौन से कारण हैं इनमें प्रधान कारण कौन से हैं?
उत्तर-५८४ कर्म द्रव्य परिवर्तन के पाँच कारण हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग। इनमें मिथ्यात्व और कषाय प्रधान हैं।
प्रश्न-५८५ क्षेत्र परिवर्तन की परिभाषा वे भेद बताओ?
उत्तर-५८५ लोकाकाश के ३४३ राजुओं में सभी जीव उनेक बार जन्म ले चुके और मर चुके है। क्षेत्र परिवर्तन के दो भेद हैं-स्वक्षेत्र परिवर्तन, परक्षेत्र परिवर्तन।
प्रश्न-५८६ हमारे साथ कौन-कौन से परिवर्तन लगे हैं?
उत्तर-५८६ हमारे साथ ये पाँचों ही परिवर्तन लगे हुए हैं।
प्रश्न-५८७ क्या यह पंचपरावर्तन समाप्त हो सकता है? यदि हाँ तो कैसे?
उत्तर-५८७ जब इस जीव को सम्यक्त्व प्रकट हो जाता है तब पंचपरावर्तन समाप्त हो जाता है।
प्रश्न-५८८ सम्यग्दृष्टि जीव यदि सम्यक्त्व से च्युत होकर अधिक से अधिक संसार में भ्रमण करे तो कब तक करेगा?
उत्तर-५८८ सम्यग्दृष्टि जीव यदि सम्यक्त्व से च्युत होकर अधिक से अधिक संसार में भ्रमण करे तो वह अर्ध पुद्गल परावर्तन मात्र काल तक भ्रमण करता है।
प्रश्न-५८९ अनुयोग कितने होते हैं, उनके नाम बताओ?
उत्तर-५८९ अनुयोग चार होते हैं उनके नाम हैं-प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग व द्रव्यानुयोग।
प्रश्न-५९० चार अनुयोगों में हमें पहले कौन से अनुयाग का ग्रंथ पढ़ना चाहिये?
उत्तर-५९० चार अनुयोगों में हमें पहले पहले प्रथमानुयोग नामक अनुयोग के ग्रंथ पढ़ना चाहिये।
प्रश्न-५९१ प्रथमानुयोग का लक्षण बताओ?
उत्तर-५९१ जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों को, किसी एक महापुरुष के चरित को, त्रेसठ शलाका पुरुषों के पुराण को कहता है, पुण्य रूप है, रत्नत्रय मय बोधि और समाधि का खजाना है, उस समीचीन ज्ञान को प्रथमानुयोग कहते हैं।
प्रश्न-५९२ करणानुयोग की परिभाषा बताओ?
उत्तर-५९२ जो लोक-अलोक के विभाग को, छह काल के परिवर्तन को, चारों गतियों के परिभ्रमण को और संसार के पाँच परिवर्तन को कहता है। तीन लोक का सम्पूर्ण चित्र दर्पण के समान झलकता है, उस शास्त्र को करणानुयोग कहते हैं।
प्रश्न-५९३ चरणानुयोग व द्रव्यानुयोग में क्या अंतर है?
उत्तर-५९३ जो श्रावक और मुनि के आचरण रूप चारित्र का वर्णन करता है, उनके चारित्र की उत्पत्ति, वृद्धि और रक्षा के साधनों को बतलाता है वह चरणानुयोग शास्त्र है यही मोक्षमहल में चढ़ने वालों का चरण रखने के लिए सीढ़ी के समान है तथा जीव-अजीव तत्त्वों को, पुण्य-पाप को, आस्रव, संवर, बंध और मोक्ष इन सभी तत्त्वों को सही-सही समझता है वह दीपक के समान द्रव्यों को प्रकट दिखलाने वाला द्रव्यानुयोग है।
प्रश्न-५९४ पाप किसे कहते हैं तथा इसके कितने भेद हैं?
उत्तर-५९४ अशुभ कर्मों का करना पाप कहलाता है। इसके पाँच भेद हैं-हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह।
प्रश्न-५९५ हिंसा किसे कहते हैं?
उत्तर-५९५ प्रमाद से अपने या दूसरों के प्राणों का घात करने को हिंसा कहते हैं।
प्रश्न-५९६ इस पाप के करने वाले क्या कहलाते हैं?
उत्तर-५९६ इस पाप के करने वाले हिंसक, निर्दयी व हत्यारे कहलाते हैं।
प्रश्न-५९७ हिंसा नामक पाप में कौन प्रसिद्ध हुआ है?
उत्तर-५९७ हिंसा नामक पाप में राजा यशोधर प्रसिद्ध हुआ।
प्रश्न-५९८ उसने क्या किया था?
उत्तर-५९८ उसने शांति के लिए अपनी माता की प्ररेणा से आटे का मुर्गा बनाकर चंडमारी देवी के समक्ष बलि चढ़ई।
प्रश्न-५९९ इसका उन्हें क्या फल मिला?
उत्तर-५९९ इस संकल्पी हिंसा के पाप से वे पुत्र व माता मरकर मयूर-कुत्ता, मगर-सांप, मत्स्य-मगर, बकरा-बकरी, बकरा और भैंसा, मुर्गा-मुर्गी इन छ: भवों में गये पुन: छठें भव में मरते समय णमोकार मंत्र श्रवण कर राजा यशोमति की रानी से युगलिया पुत्र हुए। बाल्यकाल में वैराग्य होने से दीक्षा ले क्षुल्लक-क्षुल्लिका बन गये। एक समय जल्लाद के द्वारा बलि के लिए ले जाने पर क्षुल्लक द्वारा पूर्व भव सुनाने पर राजा अहिंसक हो गया।
प्रश्न-६०० झूठ किसे कहते हैं? इस पाप को करने वाले क्या कहलाते हैं?
उत्तर-६०० जिस बात को, जिस चीज को जैसा देखा या सुना हो वैसा न कहना झूठ है तथा जिन वचनों से धर्म, धर्मात्मा या किसी भी प्राणी का घात हो जावे ऐसे सत्य वचन भी झूठ कहलाते हैं। इस पाप को करने वाले झूठे व दगाबाज कहलाते हैं।
प्रश्न-६०१ हिंसा कितने प्रकार की होती है?
उत्तर-६०१ हिंसा चार प्रकार की होती है-संकल्पी, आरम्भी, विरोधी और उद्यमी।
प्रश्न-६०२ श्रावक के लिए कौन सी हिंसा छोड़ना आवश्यक है?
उत्तर-६०२ श्रावक के लिए संकल्पी हिंसा छोड़ना आवश्यक है।
प्रश्न-६०३ द्रव्य हिंसा और भाव हिंसा किसे कहते हैं?
उत्तर-६०३ द्रव्य हिंसा ‘किसी प्राणी का घात कर दिया जाए’ वह है और भाव हिंसा वह है कि जो मात्र मन में किसी जीव को मारने की भावना कर ले।
प्रश्न-६०४ पाप का फल कब प्राप्त होता है?
उत्तर-६०४ पाप का फल भव-भवान्तरों तक प्राप्त होता है।
प्रश्न-६०५ झूठ बोलने में प्रसिद्ध राजा का नाम बताते हुए कथा को संक्षेप में लिखो?
उत्तर-६०५ झूठ बोलने में राजा वसु प्रसिद्ध हुए हैं कथा इस प्रकार है-पर्वत, नारद और वसु तीनों एक ही गुरु के पास पढ़े हुए थे। किसी समय पर्वत ने सभा में ‘‘अजैर्यष्टव्यं’’ सूत्र का अर्थ बकरों से होम करना चाहिए, ऐसा कर दिया। उस समय नारद पंडित ने कहा कि गुरुजी ने बताया था कि अज-अर्थात् पुराने धान से होम करना चाहिए। पर्वत नहीं माना। तब वह न्याय के लिए राजा वसु की सभा में गया। राजा ने पर्वत की माता के कहने से पर्वत की बात का समर्थन कर दिया। सबके मना करने पर भी राजा नहीं मान, झूठ बोलता गया। बस! इस पाप से राजा का सिंहासन पृथ्वी में धंस गया और वह मरकर नरक चला गया।
प्रश्न-६०६ चोरी किसे कहते हैं?
उत्तर-६०६ बिना दिये किसी की गिरी, पड़ी, रखी या भूली हुई वस्तु को ग्रहण करना अथवा उठाकर किसी को दे देना चोरी है।
प्रश्न-६०७ इस पाप के करने वाले क्या कहलाते हैं?
उत्तर-६०७ इस पाप को करने वाले चोर कहलाते हैं।
प्रश्न-६०८ चोरी करने से क्या फल मिलता है?
उत्तर-६०८ चोरी करने से नरकों के, तिर्यंचों के और मनुष्यों के भी दु:ख भोगने पड़ते हैं।
प्रश्न-६०९ कुशील किसे कहते हैं?
उत्तर-६०९ पराई स्त्री के साथ या पर पुरुष के साथ रमने को कुशील की संज्ञा दी गयी है।
प्रश्न-६१० इस पाप को करने वाले क्या कहलाते हैं?
उत्तर-६१० इस पाप को करने वाले व्यभिचारी, जार, बदमाश कहलाते हैं तथा लोक में बुरी नजर से देखे जाते हैं।
प्रश्न-६११ रावण ने क्या बुरा किया?
उत्तर-६११ रावण ने सीता के रूप पर मुग्ध होकर उसका हरण कर लिया।
प्रश्न-६१२ रावण की मृत्यु कैसे हुई और वह मरकर कहाँ गया?
उत्तर-६१२ युद्ध में राम के भाई लक्ष्मण के द्वारा उसकी मृत्यु हुई और वह मरकर नरक में चला गया।
प्रश्न-६१३ सीता की अग्नि परीक्षा क्यों दी और उसका फल क्या मिला था?
उत्तर-६१३ सीातने अपने शील की रक्षा व सतीत्व हेतु अग्नि परीक्षा दी जिससे अग्नि भी जलमयी सरोवर बन गयी और देवों ने भी आकर जयकार किया।
प्रश्न-६१४ जो परस्त्री सेवन करते हैं उनको कौन सी गति मिलती है?
उत्तर-६१४ जो परस्त्री सेवन करते हैं उनको नरक गति अवश्य ही मिलती है।
प्रश्न-६१५ कोई माता अपने बालक का नाम रावण क्यों नहीं रखती?
उत्तर-६१५ कुशील नामक पाप में बदनाम होने के कारण प्रत्येक माता अपने बालक का नाम रावण नहीं रखना चाहती।
प्रश्न-६१६ परिग्रह की परिभाषा बताओ?
उत्तर-६१६ जमीन, मकान, धन, धान्य, गाय, बैल इत्यादि से मोह रखना, इन्हीं संसरी चीजों के इकट्ठे करने में लालसा रखना परिग्रह कहलाता है।
प्रश्न-६१७ इस पाप के करने वाले क्या कहलाते हैं?
उत्तर-६१७ इस पाप के करने वाले लोभी, बहुधंधी व कंजूस कहलाते हैं।
प्रश्न-६१८ सेठ का नाम पिण्याकगंध कैसे पड़ा? इसकी कथा संक्षेप में बताओ?
उत्तर-६१८ एक सेठ जिसके पास करोड़ो का धन था लेकिन धन होते हुए भी वह कंजूस था। न किसी को कुछ देता, न खाता और न ही ठीक से पहनता। यहाँ कि कि तेल खल खाकर पेट भर लेता था अत: उसके शरीर से खल की गंध आने लगी इसीलिए उसका नाम ‘‘पिण्याकगंध’’ नाम प्रसिद्ध हो गया। वह अपने बच्चों से कहता कि पड़ोसी बच्चों के साथ कुश्ती खेलो बस उनके शरीर का तेल तुम्हारे शरीर मेें लग जाएगा। किसी समय राजा का तालाब खोदते समय एक नौकर को सोने की सलाइयों से भरा एक संदूक मिला। एक-एक करके उसने लोहे के भाव से अट्ठानवे सलाइयाँ खरीद लीं किन्तु वे सलाइयाँ सोने की थीं। राजा के यहाँ इसका सब भेद खुल जाने से राजा ने उसका सब धन लूटकर उसके कुटुम्बीजनों को जेल में डाल दिया। इस घटना को सुनकर पिण्याकगंध अपने पैर तोड़कर अतिलोभ से मरकर नरक चला गया।
प्रश्न-६१९ व्यसन किसे कहते हैं?
उत्तर-६१९ जिस काम को बार-बार करने की आदत पड़ जाती है उसे व्यसन कहते हैं अथवा दु:खों को व्यसन कहते हैं।
प्रश्न-६२० व्यसन कितने होते हैं?
उत्तर-६२० व्यसन सात होते हैं— जुआ खेलना, मांस, मद, वेश्यागमन, शिकार। चोरी, पररमणी रमण, सातों व्यसन निवर।। जुआ खेलना, मांस खाना, मदिरा पीना, वेश्यागमन, शिकार करना, चोरी करना व परस्त्री सेवन ये ७ व्यसन हैं।
प्रश्न-६२१ जुआ व्यसन किसे कहते हैं? इस व्यसन में कौन प्रसिद्ध हुआ?
उत्तर-६२१ जिसमें हार-जीत का व्यवहार हो उसे जुआ कहते हैं यह रुपये-पैसे लगाकर खेला जाता है। इस व्यसन में धर्मराज युधिष्ठिर प्रसिद्ध हुए।
प्रश्न-६२२ सभी व्यसनों का मूल क्या है?
उत्तर-६२२ जुआ खेलना सभी व्यसनों का मूल है।
प्रश्न-६२३ जुआ खेलने से क्या हानि होती है?
उत्तर-६२३ जुआ खेलने से आगे जाकर धर्म तथा धन दोनों का सर्वनाश हो जाता है।
प्रश्न-६२४ मांस व्यसन किसे कहते हैं?
उत्तर-६२४ कच्चे, पके हुए या पकते हुए किसी भी अवस्था में माँस के टुकड़े या अनंतानंत त्रस जीवों की उत्पत्ति होती रहती है इसका सेवन करना माँस व्यसन कहलाता है।
प्रश्न-६२५ इसके सेवन से क्या होता है?
उत्तर-६२५ इसके सेवन से महापाप का बंध होता है।
प्रश्न-६२६ मांस भक्षण करने वाले क्या कहलाते हैं और कहाँ जाते हैं?
उत्तर-६२६ माँस भक्षण करने वाले मांसाहारी कहलाते हैं और दुर्गति में चले जाते हैं।
प्रश्न-६२७ मांस व्यसन में कौन प्रसिद्ध हुआ?
उत्तर-६२७ मांस व्यसन में बक नामक राजा प्रसिद्ध हुआ।
प्रश्न-६२८ क्या शक्कर आदि से बनी हुई जीव के आकार की कोई वस्तु खानी चाहिए?
उत्तर-६२८ नहीं, शक्कर आदि से बनी हुई जीव के आकार की बनी कोई वस्तु नहीं खानी चाहिए इसमें भी पाप बंध होता है।
प्रश्न-६२९ व्यसन से क्या-क्या हानियाँ होती हैं?
उत्तर-६२९ व्यसनों से धन, धर्म, समय व शरीर तो बेकार होता है साथ ही इस लोक में निंदा होने के साथ-साथ परलोक में भी महान दु:खों को भोगना पड़ता है।
प्रश्न-६३० अंडे, मांस, शराब का सेवन करना धर्म है या पाप का कारण है?
उत्तर-६३० अंडे, मांस व शराब का सेवन करना पाप का कारण है।
प्रश्न-६३१ जुएँ के कारण कौन से महापुरुषों को वन-वन भटकना पड़ा?
उत्तर-६३१ जुएँ के कारण पाँचों पांडवों को वन-वन भडकना पड़ा।
प्रश्न-६३२ मदिरापान व्यसन क्या है? इसके करने से क्या होता है?
उत्तर-६३२ गुड़, महुआ आदि को सड़ाकर शराब बनाई जाती है। इसमें प्रतिक्षण अनंतानंत सम्मूर्छन त्रस जीव उत्पन्न होते रहते हैं इसको सेवन करना मदिरपान नामक व्यसन है। इसमें मादकता होने से पीते ही मनुष्य उन्मत्त हो जाता है और न करने योग्य कार्य कर डालता है। इस मदिरापान से लोग मांस खाना, वेश्या सेवन करना आदि पापों से नहीं बच पाते हैं और सभी व्यसनों के शिकार बन जाते हैं।
प्रश्न-६३३ मदिरापान व्यसन में कौन प्रसिद्ध हुआ?
उत्तर-६३३ मदिरापान नामक व्यसन में शंबु आदि यादव कुमार प्रसिद्ध हुए हैं।
प्रश्न-६३४ वेश्यागमन व्यसन किसे कहते हैं? इसका सेवन करने वाले क्या कहलाते हैं?
उत्तर-६३४ वेश्या के घर आना-जाना, उसके साथ रमण करना वेश्या सेवन कहलाता है। वेश्यागामी लोग व्यभिचारी, लुच्चे, नीच कहलाते हैं।
प्रश्न-६३५ इस व्यसन के सेवी कहाँ जाते हैं? सुगति में या दुर्गति में?
उत्तर-६३५ इस व्यसन के सेवी इस भव में कीर्ति और धन का नाश करके परभव में दुर्गति में चले जाते हैं।
प्रश्न-६३६ वेश्यासेवन में कौन प्रसिद्ध हुआ?
उत्तर-६३६ वेश्यासेवन में सेठ भानुदत्त का पुत्र चारुदत्त प्रसिद्ध हुआ।
प्रश्न-६३७ शिकार किसे कहते हैं?
उत्तर-६३७ रसना इंद्रिय की लोलुपता से या अपना शौक पूरा करने के लिए अथवा कौतुक के निमित्त बेचारे निरपराधी, भयभीत, वनवासी पशु-पक्षियों को मारना शिकार कहलाता है।
प्रश्न-६३८ इस पाप के करने वाले के क्या फल मिलता है?
उत्तर-६३८ इस पाप को करने वाले मनुष्य अनंतकाल तक संसार में दु:ख उठाते हैं।
प्रश्न-६३९ इस व्यसन में कौन प्रसिद्ध हुआ?
उत्तर-६३९ इस व्यसन में उज्जयिनी का राजा ब्रह्मदत्त प्रसिद्ध हुआ।
प्रश्न-६४० चोरी किसे कहते हैं।
उत्तर-६४० बिना दिये हुए किसी की कोई भी वस्तु ले लेना चोरी है।
प्रश्न-६४१ दूसरे से धन हड़पने वाले मनुष्यों को क्या कष्ट सहना पड़ता है?
उत्तर-६४१ दूसरों से धन हड़पने वाले मनुष्य इस लोक और परलोक में अनेक कष्ट सहते हैं। उन पर मनुष्य तो क्या माता-पिता
भी विश्वास नहीं करते तथा राजा द्वारा भी दण्ड मिलता है।
प्रश्न-६४२ चोरी नामक व्यसन में कौन प्रसिद्ध हुआ?
उत्तर-६४२ चोरी नामक व्यसन में सत्यघोष (शिवभूति ब्राह्मण) प्रसिद्ध हुआ।
प्रश्न-६४३ परस्त्री सेवन नामक व्यसन की परिभाषा बताओ?
उत्तर-६४३ धर्मानुकूल अपनी विवाहित स्त्री के सिवाय दूसरी स्त्रियों के साथ रमण करना परस्त्री सेवन कहलाता है।
प्रश्न-६४४ मूलगुण किसे कहते हैं?
उत्तर-६४४ जो गुणों में मूल हैं उन्हें मूलगुण कहते हैं।
प्रश्न-६४५ द्वितीय प्रकार से अष्टमूल गुण कौन-कौन से हैं?
उत्तर-६४५ मद्य त्याग, मांस त्याग, मघु त्याग, रात्रि भोजन त्याग, पाँच उदुम्बर फलों का त्याग, जीव दया का पालन करना, जल छानकर पीना और पंच परमेष्ठी को नमस्कार करना ये द्वितीय प्रकार से अष्टमूल गुण होते हैं।
प्रश्न-६४६ पहले आठ मूलगुण दूसरे में शामिल हैं या नहीं?
उत्तर-६४६ पहले आठ मूलगुण दूसरे में शामिल हैं।
प्रश्न-६४७ पाँच उदुम्बर फलों के नाम बताओ?
उत्तर-६४७ बड़, पीपल, पाकर, कठूमर और गूलर ये पाँच प्रकार के उदुम्बर फल होते हैं।
प्रश्न-६४८ शहद खाने से क्या-क्या दोष हैं?
उत्तर-६४८ जब एक बिन्दु मात्र भी शहद खाने से सात गाँव जलाने का पाप है तो शहद खाने में महादोष है।
प्रश्न-६४९ शाकाहार एवं मांसाहार में क्या-क्या अंतर है?
उत्तर-६४९ जो पेड़ से पैदा हो वह शाकाहार तथा जो पेट से उत्पन्न वा मांस अण्डे आदि से निर्मित हो वह मांसाहार है।
प्रश्न-६५० कौन-कौन से व्यसन अहितकारी होते हैं?
उत्तर-६५० सभी व्यसन अहितकारी होते हैं।
प्रश्न-६५१ चमड़े की बनी वस्तुएँ काम में क्यों नहीं लेनी चाहिए?
उत्तर-६५१ चमड़े की बनी वस्तुएँ इसलिए काम में नहीं लेना चाहिए क्योंकि चमड़ा जानवरों की खाल से बनता है इसलिए अपवित्र होता है।
प्रश्न-६५२ लिपिस्टिक, नेलपालिश व शैम्पू में क्या दोष है?
उत्तर-६५२ लिपिस्टिक, नेलपालिश व शैम्पू में जानवरों की आँख, खून आदि का प्रयोग होता है अत: इसमें महान दोष है।
प्रश्न-६५३ धूम्रपान से क्या-क्या हानियाँ हैं?
उत्तर-६५३ धूम्रपान से धन, शरीर व समय बरबाद होता है तथा कैंसर जैसी घातक बीमारियाँ हो जाती हैं।
प्रश्न-६५४ सम्यग्दर्शन किसे कहते हैं?
उत्तर-६५४ सच्चे देव, सच्चे शास्त्र और सच्चे गुरु का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, सात तत्त्व और नव पदार्थ इनका श्रद्धान करना भी सम्यग्दर्शन है।
प्रश्न-६५५ यह कितने अंगों से सहित व कितने दोनों से रहित होता हैं?
उत्तर-६५५ यह नि:शंकित आदि आठ अंगों से सहित व शंकादि आठ दोष, आठ मद, छह अनायतन और तीन मूढ़ता इन पच्चीस दोषों से रहित होता है।
प्रश्न-६५६ सच्चे देव किसे कहते हैं?
उत्तर-६५६ जो दोष रहित वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी हैं वे ही आप्त-सच्चे देव कहलाते हैं। ये ४६ गुण सहित और १८ दोष
रहित होते हैं। इन्हें ही अर्हंत परमेष्ठी कहते हैं।
प्रश्न-६५७ सच्चे शास्त्र का लक्षण बताओ?
उत्तर-६५७ सर्वज्ञ देव के द्वारा कथित, पूर्वापर विरोध से रहित, सभी जीवों को हितकारी ऐसे सच्चे तत्त्वों का जिसमें उपदेश है वे ही सच्चे शास्त्र हैं।
प्रश्न-६५८ सच्चे गुरु की विशेषता बताओ?
उत्तर-६५८ जो विषयों की आशा से रहित और परिग्रह के त्यागी हैं तथा ज्ञान, ध्यान व तप में लवलीन रहते हैं वे निग्र्रंथ साधु ही सच्चे गुरु हैं।
प्रश्न-६५९ सम्यग्दर्शन के आठ अगं कौन-कौन से हैं?
उत्तर-६५९ नि:शंकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढ़ दृष्टि, उपगूहन, स्थिति-करण, वात्सल्य और प्रभावना ये सम्यग्दर्शन के आठ अंग हैं।
प्रश्न-६६० नि:शंकित अंग किसे कहते हैं? इस अंग में कौन प्रसिद्ध हुआ?
उत्तर-६६० तत्त्व यही है, ऐसा ही है, अन्य प्रकार से नहीं हो सकता है इस प्रकार दृढ़ता रखना, उसमें किंचित् शंका नहीं करना नि:शंकित अंग है। इस अंग में राजा अरिमथन का ललितांग (अंजन चोर) नामक पुत्र प्रसिद्ध हुआ।
प्रश्न-६६१ नि:कांसित अंग किसे कहते हैं? इस अंग में किसने प्रसिद्धि प्राप्त की?
उत्तर-६६१ संसार के सुख कर्मों के अधीन हैं, विनश्वर हैं, दु:खों से मिश्रित हैं और पापों के बीज हैं ऐसे सुखों की आकांक्षा नहीं करना नि:कांक्षित अंग है। इस अंग में सेठ प्रियदत्त की पुत्री अनंमती ने प्रसिद्धि प्राप्त की।
प्रश्न-६६२ निर्विचिकित्सा अंग का लक्षण बताओ? उद्दायन राजा ने इसका पालन किस प्रकार से किया?
उत्तर-६६२ स्वभाव से अपवित्र किन्तु रत्न.य से पवित्र ऐसे मुनियों के शरीर को देखकर ग्लानि नहीं करना, इनके गुणों में प्रीति करना निर्विचिकित्सा अंग है। उद्दायन राजा ने मायावी कुष्टरोगी मुनि (जो कि स्वर्ग के देव थे) के वमन कर देने पर चौकर चाकर के उस दुर्गन्धित वमन से पलायमान हो जाने पर विनयपूर्वक मुनिराज की सेवा सुश्रूषा करके इस निर्विचिकित्सा अंग का पालन किया था।
प्रश्न-६६३ अमूढ़दृष्टि अंग की परिभाषा बताते हुए रेवती रानी की कथा संक्षेप में बताओ?
उत्तर-६६३ दु:खों में पहुँचाने वाले मिथ्यामार्ग और मिथ्यामार्ग में चलने वालों में सम्मति नहीं देना, उनसे सम्पर्क नहीं रखना, उनकी प्रशंसा नहीं करना अमूढ़ दृष्टि अंग है। दक्षिण मथुरा में दिगम्बर गुरु गुप्ताचार्य के पास क्षुल्लक चन्द्रप्रभ रहते थे। उन्होंने आकाशगामिनी आदि विद्या को नहीं छोड़ने से मुनिपद नहीं लिया था। एक दिन वह तीर्थ वंदना हेतु मथुरा आने लगे तब गुरु से आज्ञा लेकर गुरु से किसी से कुछ कहने के लिए पूछा तब गुरु ने सुव्रत मुनिराज को नमोऽस्तु और रेवती रानी को आशीर्वाद कहा। तीन बार पूछने पर भी उन्होंने यही उत्तर दिया तब क्षुल्लक महाराज वहाँ आकर सुव्रत मुनि को नमस्कार कह रेवती रानी के पास आ गये और रानी की परीक्षा हेतु कभी ब्रह्मा, कभी श्रीकृष्ण, कभी महादेव और कभी अरिहंत भगवान का समवसरण तैयार कर दिया परन्तु रानी ने उन सब को सत्न न माना। अनंतर वह क्षुल्लक विद्या के बल से रोगी क्षुल्लक का वेश बनाकर रानी के यहाँ आये। रानी द्वारा विनयपूर्वक सुश्रूषा कर आहार दान देने पर उन्होंने वमन कर दिया। तब रानी ने भक्ति से सफाई की। तब क्षुल्लक जी अपने असली रूप में आ रानी को आशीर्वाद देकर चले गये।
प्रश्न-६६४ उपगूहन अंग का लक्षण बताओ? इस अंग में कौन प्रसिद्ध हुआ?
उत्तर-६६४ यह मोक्षमार्ग स्वयं शुद्ध है अज्ञानी और असमर्थ जनों के द्वारा कोई दोष हो जाने पर उनके दोषों को ढ़क देना (प्रकट नहीं होने देना) उपगूहन अंग कहलाता है। इस अंग में ताम्रलिप्ता नगरी के जिनेन्द्र भक्त सेठ प्रसिद्ध हुए।
प्रश्न-६६५ स्थितिकरण अंग किसे कहते हैं इस अंग में प्रसिद्ध मुनिराज की कथा संक्षेप में बताओ?
उत्तर-६६५ सम्यक्दर्शन से या सम्यक्चारित्र से यदि कोई चलायमान हो रहा हो तो धर्म के प्रेम से जैसे बने वैसे उसको धर्म में स्थिर कर देना स्थितिकरण अंश है। किसी समय वारिषेण मुनिराज पलास कूट ग्राम में आहारार्थ आए। मंत्री पुष्पडाल ने उन्हें आहार दिया और उनको पहुँचाने के लिए कुछ देर तक साथ चलने लगा। मुनि बचपन के मित्र होने से वैराग्य का उपदेश दे दीक्षा दे दी। किन्तु पुष्पडाल अपनी स्त्री को भुला नहीं सके। धीरे-धीरे बारह वर्ष व्यतीत हो गये। किसी समय ये दोनों साधु राजगृही आ गये। तब पुष्पडाल अपनी स्त्री से मिलने के लिए चल पड़े। वारिषेण मुनि उनका अंतरंग समझ उनके साथ सीधे अपने राजमहल पहुँचे और अपनी माँ से अपनी बत्तीसों स्त्रियों को बुलाकर उनका उपभोग करने को कहा तब पुष्पडाल को वास्तविक वैराग्य हो गया तब वारिषेण मुनि ने वन में पहुँचकर प्रायश्चित से शुद्धकर उन्हें मुनिपद में स्थित कर दिया।
प्रश्न-६६६ वात्सल्य अंग का लक्षण बताते हुए यह बताओ कि किस प्रकार विष्णुकुमार मुनिराज ने इसका पालन किया?
उत्तर-६६६ कपट भावों से रहित होकर सद्भावनापूर्वक सहधर्मी बन्धुओं का यथायोग्य आदर करना वात्सल्य अंग है अर्थात् धर्मात्मा के प्रति एक साहजिक अकृत्रिम स्नेह होना वात्सल्यभाव कहलाता है। विष्णुकुमार मुनिराज ने इसका पालन सात सौ मुनियों पर आये उपसर्ग को दूर करके किया हुआ यूँ कि विष्णुकुमार मुनि के बड़े भाई राजा पद्म के चारों मंत्रियों बलि, वृहस्पति, नमुच और प्रहलाद ने उनसे वर प्राप्त किया था और उसे धरोहर के रूप में राजा के पास रख दिया। एक समय अकंपनाचार्य आदि सात सौ मुनियों को वहाँ ठहरा जान जिन धर्म के द्वेषी उन मंत्रियों ने राजा से वर के रूप में सात दिन का राज्य मांगकर उन मुनियों को चारों तरफ से घेर कर यज्ञ के बहाने आग लगा दी। उधर मिथिला नगरी में श्रवण नक्षत्र कंपित होते देख श्रुतसागर मुनि के मुख से हाहाकार शब्द सुन पास में बैठे क्षुल्लक से सारा वृतान्त जान व स्वयं को विक्रिया ऋद्धि युक्तजान विष्णु कुमार मुनिराज ने वामन का वेश धारण उन मंत्रियों से पैर भूमि मांगकर अपनी विक्रिया प्रगटकर उन मुनियों का उपसर्ग दूर किया।
प्रश्न-६६७ प्रभावना अंग का लक्षण बताओ? इसमें किसने प्रसिद्धि प्राप्त की?
उत्तर-६६७ चारों तरफ से फैल हुए अज्ञान रूपी अंधकार को जैसे बने बैसे हटाकर जैन धर्म के माहात्म्य को फैलाना प्रभावना है। इस अंग में वङ्काकुमार नामक मुनिराज ने प्रसिाद्ध प्राप्त की।
प्रश्न-६६८ रत्नत्रय किसे कहते हैं तथा इसके कितने भेद हैं?
उत्तर-६६८ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र को रत्नत्रय कहते हैं। इसके दो भेद हैं- १. व्यवहार रत्नत्रय २. निश्चय रत्नत्रय
प्रश्न-६६९ व्यवहार सम्यग्दर्शन किसे कहते हैं?
उत्तर-६६९ जीवादि तत्त्वों का और सच्चे देव, शास्त्र, गुरुओं का २५ दोष रहित श्रद्धान करना व्यवहार सम्यग्दर्शन कहलाता है।
प्रश्न-६७० सम्यक्त्व के २५ मलदोष कौन-कौन से हैं?
उत्तर-६७० शंकादि आठ दोष, आठ मद, छह अनायतन और तीन मूढ़ता ये सम्यक्त्व के २५ मलदोष हैं।
प्रश्न-६७१ इन पच्चीस मलदोषों से रहित जीव कहाँ-कहाँ जन्म नहीं लेता है?
उत्तर-६७१ इन पच्चीस मलदोषों से रहित सम्यग्दृष्टि जीव एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, असैनी पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में, नरकों में, कुभोगभूमि में, स्त्री पर्याय और नपुंसक पर्याय में, भवनवासी, व्यंतरवासी, ज्योतिषी देव-देवियों में तथा कल्पवासी देव-देवियों में जन्म नहीं लेता। यदि कदाचित् पहले नर्क की आयु बांध ली है पीछे सम्यक्त्व हुआ तो प्रधान नरक में ही जाता है। इसके अलावा वह नीच घरानों में वह दरिद्र कुल में जन्म नहीं लेता, अल्पायुधारी भी नहीं होता।
प्रश्न-६७२ सम्यक्त्वी जीव कौन-कौन से पदों को प्राप्त करता है?
उत्तर-६७२ सम्यक्त्वी जीव उत्कृष्ट ऋद्धि सहित देव, इंद्र, बलभद्र, चक्रवर्ती और तीर्थंकर का पद प्राप्त कर लेता है।
प्रश्न-६७३ क्या सम्यक्त्व के बिना कोई मोक्ष जा सकते हैं?
उत्तर-६७३ नहीं, बिना सम्यक्त्व के कोई मोक्ष नहीं जा सकते हैं।
प्रश्न-६७४ इन आठों अंगोें में से एक या दो अंग न हों तो क्या हानि है?
उत्तर-६७४ इन आठों अंगों में एक या दो अंग न होने पर वह जीव सम्यग्दृष्टि नहीं कहला सकता।
प्रश्न-६७५ क्षायिक सम्यग्दर्शन कौन सी गति के जीवों को होता है?
उत्तर-६७५ क्षायिक सम्यग्दर्शन मनुष्य गति के जीवों को होता है।
प्रश्न-६७६ अनादि मिथ्यादृष्टि को सबसे पहले कौन सा सम्यग्दर्शन होता है?
उत्तर-६७६ अनादि मिथ्यादृष्टि को सबसे पहले प्रथमोपशम सम्यक्त्व होता है।
प्रश्न-६७७ कार्य की सिद्धि में मुख्य कारण कौन से हैं?
उत्तर-६७७ कार्य की सिद्धि में मुख्य कारण हैं- १. निमित्त २. उपादन
प्रश्न-६७८ स्त्रियों को कौन सा सम्यग्दर्शन हो सकता है?
उत्तर-६७८ स्त्रियों को उपशम और क्षयोपशम सम्यग्दर्शन हो सकता है।
प्रश्न-६७९ पंगु कौन है?
उत्तर-६७९ ‘‘यथार्थ तीर्थयात्रा न करने वाला’’
प्रश्न-६८० लूला कौन है?
उत्तर-६८० ‘‘हाथ का दुरुपयोग करने वाला’’
प्रश्न-६८१ जगत में घातकी कौन है?
उत्तर-६८१ ‘‘विश्वासघातकी’’
प्रश्न-६८२ जगत में स्वैराचार की विरोधनी दीक्षा कौन सी है?
उत्तर-६८२ ‘‘जैनी दीक्षा’’
प्रश्न-६८३ षट्कायिक जीवों की रक्षा करने वाला कौन है?
उत्तर-६८३ ‘‘महाव्रती’’
प्रश्न-६८४ महाऔषधि क्या है?
उत्तर-६८४ ‘‘जिनवचन’’
प्रश्न-६८५ यथार्थ ज्ञान का कारण क्या है?
त्तर-६८५ ‘‘सम्यग्दर्शन’’
प्रश्न-६८६ पूर्ण ज्ञान का बीज क्या है?
उत्तर-६८६ ‘‘भाव श्रुत का विकास होना’’
प्रश्न-६८७ स्वाध्याय का अभिप्राय क्या है?
उत्तर-६८७ ‘‘भावश्रुत का विकास होना’’
प्रश्न-६८८ स्वाध्याय का अभिप्राय क्या है?
उत्तर-६८८ ‘‘भावश्रुत विकसित करना’’
प्रश्न-६८९ कामदेव का निर्मूलन करने वाला कौन है?
उत्तर-६८९ ‘‘जिनेन्द्र भगवान’’
प्रश्न-६९० प्राचीन सच्चा इतिहास क्या है?
उत्तर-६९० ‘‘प्रथमानुयोग’’
प्रश्न-६९१ वीरों का वीर कौन है?
उत्तर-६९१ ‘‘मोहराज, यमराज और कामराज इनको जीतने वाला’’
प्रश्न-६९२ सच्चा शास्त्र पढ़ने का सार क्या है?
उत्तर-६९२ ‘‘स्व आत्मा का सहारा लेना’’
प्रश्न-६९३ पाप से बचाने वाला कौन है?
उत्तर-६९३ ‘‘सच्चे गुरु’’
प्रश्न-६९४ अलौकिक सभा कौन सी है?
उत्तर-६९४ ‘‘समवसरण’’
प्रश्न-६९५ प्रथम कन्या को शिक्षा देने वाला कौन है?
उत्तर-६९५ ‘‘भगवान ऋषभेदव’’
प्रश्न-६९६ साधक को एक अवस्था हितकारी है वह कौन सी अवस्था है?
उत्तर-६९६ ‘‘ध्याता, ध्यान, ध्येय वर्जित अवस्था’’
प्रश्न-६९७ संसार का कारण क्या है?
उत्तर-६९७ ‘‘जीव की विकार परिणति’’
प्रश्न-६९८ सब लोगों को आकर्षित करने वाली सातिशय पुण्य प्रकृति कौन सी है?
उत्तर-६९८ ‘‘तीर्थंकर प्रकृति’’
प्रश्न-६९९ स्त्री पर्याय में अंतिम धर्मपुरुषार्थ कौन सा है?
उत्तर-६९९ ‘‘आर्यिका दीक्षा’’
प्रश्न-७०० मानव का मुख्य कार्य क्या है?
उत्तर ७०० ‘‘मन का सदुपयोग करना’’।
प्रश्न-७०१ अनाहत मंत्र कौन सा है?
उत्तर-७०१ ‘‘र्हं’’।
प्रश्न-७०२ जगत में अपराजित महामंत्र कौन सा है?
उत्तर-७०२ ‘‘णमोकार’’।
प्रश्न-७०३ निरंजन स्थान कौन सा है?
उत्तर-७०३ ‘‘सिद्धालय’’।
प्रश्न-७०४ पूजनीय अवस्था कौन सी है?
उत्तर-७०४ ‘‘जीवन्मुक्त अवस्था’’।
प्रश्न-७०५ गृहस्थ अवस्था और त्यागी अवस्था में चलित न होने वाला एक कौन है?
उत्तर-७०५ ‘‘तीर्थंकर’’।
प्रश्न-७०६ पूर्णज्ञान कौन सा है?
उत्तर-७०६ ‘‘केवलज्ञान’’।
प्रश्न-७०७ सर्व अनुभवों में सर्वश्रेष्ठ अनुभव कौन सा है?
उत्तर-७०७ ‘‘स्वशुद्धात्मानुभव’’।
प्रश्न-७०८ उत्कृष्ट ध्यान कौन सा है?
उत्तर-७०८ ‘‘स्वशुद्धत्म ध्यान’’।
प्रश्न-७०९ पूर्ण स्वतंत्रता हेतु कौन सी योनि होना आवश्यक है?
उत्तर-७०९ ‘‘मनुष्ययोनि’’।
प्रश्न-७१० तीर्थंकर प्रकृति बंध करने के लिए सर्वश्रेष्ठ कौन है?
उत्तर-७१० ‘‘आर्यपुरुष’’।
प्रश्न-७११ सार्वधर्म का उदय एक विशेष धर्म में है वह कौन सा है?
उत्तर-७११ ‘‘स्वाभाविक आत्मधर्म में’’।
प्रश्न-७१२ सनातन धर्म कौन सा है?
उत्तर-७१२ ‘‘अहिंसा परमो धर्म:’’।
प्रश्न-७१३ साक्षात स्वशुद्धात्मपरिचय करने हेतु एक विशेष गति कौन सी है?
उत्तर-७१३ ‘‘मनुष्यगति’’।
प्रश्न-७१४ अखण्ड मोक्षमार्ग कौन से क्षेत्र में चालू है?
उत्तर-७१४ ‘‘विदेह क्षेत्र में’’।
प्रश्न-७१५ विदेह क्षेत्र में सदैव कौन सा धर्म विराजमान रहता है?
उत्तर-७१५ ‘‘जैन धर्म’’
प्रश्न-७१६ सर्व जीवों को सुख देने वाला धर्म कौन सा है?
उत्तर-७१६ ‘‘स्वाभाविक आत्मधर्म’’।
प्रश्न-७१७ अंतब्र्राह्म लक्ष्मी द्योतक एक अक्षर कौन सा है?
उत्तर-७१७ ‘‘श्री’’।
प्रश्न-७१८ संपूर्ण जगत में स्वतंत्रता का पाठ देने वाली पाठशाला कौन सी है?
उत्तर-७१८ ‘‘दिगम्बर जैन मंदिर’’।
प्रश्न-७१९ निर्विकारता का पाठ पढ़ाने वाली आदर्श मूर्ति कौन सी है?
उत्तर-७१९ ‘‘अरिहंत की मूर्ति’’
प्रश्न-७२० जगत में एक संस्कार संस्कृति कौन सी श्रेष्ठ है?
उत्तर-७२० ‘‘मूल भारतीय’’
प्रश्न-७२१ मुख्य अठारह भाषा और उत्तर सात सौ भाषा एक ही बार में निकलने वाली एक ध्वनि कौन सी है?
उत्तर-७२१ ‘‘अरिहंत की दिव्य ध्वनि’’
प्रश्न-७२२ जगत् में सहज सुन्दर निर्विकारी वीर मुद्रा कौन सी है?
उत्तर-७२२ ‘‘वीतराग दिगम्बर जिनमुद्रा’’
प्रश्न-७२३ आजकल एक ही वस्तु दुर्लभ है वह क्या है?
उत्तर-७२३ ‘‘सम्यक् बोधिलाभ’’
प्रश्न-७२४ स्वार्थ तो बहुत से हैं, पर सच्चा स्वार्थ क्या हैं?
उत्तर-७२४ ‘‘स्वात्मकल्याण’’
प्रश्न-७२५ सुधारक कौन है?
उत्तर-७२५ जिसकी सम्यक् धारणा है।
प्रश्न-७२६ आत्मोन्नति का कारण कौन सा है?
उत्तर-७२६ ‘‘स्वशुद्धात्म पे्रम’’
प्रश्न-७२७ एक भाव कौन सा श्रेष्ठ है?
उत्तर-७२७ ‘‘सम्यक् साम्यभाव’’
प्रश्न-७२८ केवलज्ञान का कारण क्या है?
उत्तर-७२८ ‘‘भेदविज्ञान’’
प्रश्न-७२९ लोक में महापातकी कौन है?
उत्तर-७२९ ‘‘आत्मघातकी’’
प्रश्न-७३० सर्व पाप का भागीदार कौन है?
उत्तर-७३० ‘‘आत्मद्रोही’’
प्रश्न-७३१ भयास्पद क्या है?
उत्तर-७३१ ‘‘विकारी परिणाम परिणति’’
प्रश्न-७३२ अनंत दु:खों का कारण क्या है?
उत्तर-७३२ ‘‘उल्टा अभिप्राय’’
प्रश्न-७३३ सर्व कर्म में बलवान कर्म कौन सा है?
उत्तर-७३३ ‘‘मोहनीय’’
प्रश्न-७३४ राष्ट्रोन्नति की नींव क्या है?
उत्तर-७३४ ‘‘आत्मोन्नति’’
प्रश्न-७३५ जगत में हितकारी धर्म कौन सा है?
उत्तर-७३५ ‘‘स्वधर्म’’
प्रश्न-७३६ संसार का कारण क्या है?
उत्तर-७३६ ‘‘देहात्मबुद्धि’’
प्रश्न-७३७ मंगल क्या है?
उत्तर-७३७ ‘‘निर्दोष परमात्मा का नाम’’
प्रश्न-७३८ लोकोत्तम क्या है?
उत्तर-७३८ ‘‘केवली प्रणीत धर्म’’
प्रश्न-७३९ स्वावलम्बन किसे कहते हैं?
उत्तर-७३९ ‘‘स्वशुद्धात्मा का अवलम्बन लेना’’
प्रश्न-७४० जगत् का आदर्श नेता कौन है?
उत्तर-७४० ‘‘भगवान जिन’’
प्रश्न-७४१ सत्त्याग का पाठ पढ़ाने वाला एक धर्म कौन सा है?
उत्तर-७४१ ‘‘जैनधर्म’’
प्रश्न-७४२ शुद्धि को आवश्यक मानने वाला कौन है?
उत्तर-७४२ ‘‘जैन’’
प्रश्न-७४३ जगत में सुखी कौन है?
उत्तर-७४३ ‘‘स्वशुद्धात्मा का सहारा लेने वाला’’
प्रश्न-७४४ संपूर्ण जगत में याचना रहित आहार करने वाला कौन है?
उत्तर-७४४ ‘‘दिगम्बर जैन साधु’’
प्रश्न-७४५ वस्तु स्वभाव को धर्म मानने वाला धर्म कौन सा है?
उत्तर-७४५ ‘‘जैन धर्म’’
प्रश्न-७४६ मंत्र में शक्ति प्रगट करने वाला पंचपदवाचक अक्षर क्या है?
उत्तर-७४६ ‘‘ॐ’’
प्रश्न-७४७ संसारी जीव के साथ एक द्रव्य का संयोग संबंध है वह कौन सा है?
उत्तर-७४७ ‘‘विकारी पुद्गलद्रव्य’’
प्रश्न-७४८ लोक में रूपी द्रव्य कौन सा है?
उत्तर-७४८ ‘‘पुद्गल’’
प्रश्न-७४९ संसार में इंद्रियों को प्यारी वस्तु क्या है?
उत्तर-७४९ ‘‘पुद्गल की विकारी आत्मा’’
प्रश्न-७५० अनाथ कौन है?
उत्तर-७५० ‘‘बहिरात्मा’’
प्रश्न-७५१ परद्रव्यपर्याय में आसक्त होने वाला कौन है?
उत्तर-७५१ ‘‘मूढ़ात्मा’’
प्रश्न-७५२ संसार में विपरीत ज्ञानी कौन है?
उत्तर-७५२ ‘‘वस्तु स्वरूप का न जानने वाला’’
प्रश्न-७५३ जगत में अस्वस्थ कौन है?
उत्तर-७५३ ‘‘पर पर्याय में रत रहने वाला’’
प्रश्न-७५४ ठग किसे कहा है?
उत्तर-७५४ ‘‘अपनी आत्मा को ठगने वाला’’
प्रश्न-७५५ सच्चा सुख कौन सा है?
उत्तर-७५५ ‘‘निराकुलता’’ प्र
प्रश्न-७५६ उपेक्षा का कारण क्या है?
उत्तर-७५६ ‘‘पर की अपेक्षा’’
प्रश्न-७५७ संसार में आवश्यक क्या है?
उत्तर-७५७ ‘‘अनावश्यक वस्तु का त्याग करना’’
प्रश्न-७५८ अशांति का कारण क्या है?
उत्तर-७५८ ‘‘शंकित दृष्टि’’
प्रश्न-७५९ कलह का कारण क्या है?
उत्तर-७५९ ‘‘शंशय’’
प्रश्न-७६० चिंता कौन सी उपर्युक्त है?
उत्तर-७६० ‘‘स्वात्मचिंता’’
प्रश्न-७६१ संसार में सार क्या है?
उत्तर-७६१ ‘‘सद्वैराग्य सार’’
प्रश्न-७६२ इस समय मुख्य तप क्या है?
उत्तर-७६२ ‘‘स्वाध्याय’’
प्रश्न-७६३ सच्चा आप्त कौन है?
उत्तर-७६३ ‘‘अरिहंत’’
प्रश्न-७६४ धर्म का मूल क्या है?
उत्तर-७६४ ‘‘दया’’
प्रश्न-७६५ संसार में महापाप किसे कहा है?
उत्तर-७६५ ‘‘प्रमाद योग पूर्वक आत्मिक परिणति करना’’
प्रश्न-७६६ राष्ट्रभक्षक कौन है?
उत्तर-७६६ ‘‘उच्च संस्कार संस्कृति से रहित असंयमी’’
प्रश्न-७६७ परतंत्रता का कारण क्या है?
उत्तर-७६७ ‘‘बुरी आदत’’
प्रश्न-७६८ जगत में दु:खी कौन है?
उत्तर-७६८ ‘‘अविचार में रत होने वाला’’
प्रश्न-७६९ बुरा शब्द एक ही है, वह क्या है?
उत्तर-७६९ ‘‘इज्जत लेने वाला शब्द’’
प्रश्न-७७० धैर्य शाली कौन है?
उत्तर-७७० ‘‘सम्यग्ज्ञानी’’
प्रश्न-७७१ निर्भय कौन है?
उत्तर-७७१ ‘‘सम्यग्दृष्टि’’
प्रश्न-७७२ निश्चिन्त कौन है?
उत्तर-७७२ ‘‘कर्म सिद्धांत पर अचल विश्वास रखने वाला’’
प्रश्न-७७३ पश्चाताप का कारण क्या है?
उत्तर-७७३ ‘‘मन को गिरवी रखना’’
प्रश्न-७७४ इस लोक में निंदक एक ही है, वह कौन है?
उत्तर-७७४ ‘‘परिंनदा करने वाला’’
प्रश्न-७७५ संसार से डरने वाला कौन है?
उत्तर-७७५ ‘‘मुमुक्षु’’
प्रश्न-७७६ संसार में वेप्रिक कौन है?
उत्तर-७७६ ‘‘सच्चा फकीर’’
प्रश्न-७७७ संसार में सुप्त कौन है?
उत्तर-७७७ ‘‘विषयांथ’’
प्रश्न-७७८ अंधा कौन है?
उत्तर-७७८ ‘‘निर्विकार मूर्ति न देखने वाला’’
प्रश्न-७७९ संसार में मूक कौन है?
उत्तर-७७९ ‘‘अरिहंत का नाम न लेने वाला’’
प्रश्न-७८० बहरा कौन है?
उत्तर-७८० ‘‘यथार्थ शास्त्र न सुनने वाला’’
प्रश्न-७८१ मोक्ष का मार्ग क्या है?
उत्तर-७८१ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:।
प्रश्न-७८२ मोक्षमार्ग की प्रथम सीढ़ी कौन सी है?
उत्तर-७८२ मोक्षमार्ग की प्रथम सीढ़ी सम्यग्दर्शन है।
प्रश्न-७८३ मिथ्यात्व किसे कहते हैं?
उत्तर-७८३ विपरीत या गलत धारणा का नाम मिथ्यात्व है अथवा सच्चे देव, शास्त्र व गुरु पर श्रद्धान न करना या झूठे देव, शास्त्र, गुरु का श्रद्धान करना मिथ्यात्व है।
प्रश्न-७८४ मिथ्यात्व के कितने भेद हैं? गृहीत व अगृहीत मिथ्यात्व में क्या अंतर है?
उत्तर-७८४ मिथ्यात्व के मुख्य दो भेद हैं-१. गृहीत मिथ्यात्व २. अगृहीत मिथ्यात्व। पर के उपदेश आदि से कुदेवादि में जो श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है उसे गृहीत मिथ्यात्व कहते हैं और अनादिकाल से बिना किसी के उपदेश के शरीर को ही आत्मा मानना व पुत्र, धन आदि में अपनत्व करना अथवा कुदेवादि की भक्ति करना अगृहीत मिथ्यात्व है।
प्रश्न-७८५ मिथ्यात्व के ५ भेद कौन से हैं?
उत्तर-७८५ मिथ्यात्व के पाँच भेद हैं-१. एकान्त २. विपरीत ३. विनय, ४ संशय ५. अज्ञान
प्रश्न-७८६ विपरीत और विनय मिथ्यात्व का लक्षण बताओ?
उत्तर-७८६ अधर्म को मानना विपरीत मिथ्यात्व है जैसे-यह मानना कि हिंसा से स्वार्गदि की प्राप्ति होती है और सच्चे देव-गुरु तथा झूठे गुरु-देव आदि सबकी समान विनय करना विनय मिथ्यात्व है।
प्रश्न-७८७ एकांत और अज्ञान मिथ्यात्व में क्या अंतर है?
उत्तर-७८७ जीवादि वस्तु को सर्वथा नित्य अथवा अनित्य ही मानना इत्यादि एकान्त मिथ्यात्व है। जीवादि पदार्थों को ‘यही है, इसी प्रकार से है’ इस तरह सही स्वरूप को न समझना अज्ञान मिथ्यात्व है।
प्रश्न-७८८ संशय मिथ्यात्व किसे कहते हैं?
उत्तर-७८८ सच्चे या झूठे धर्म में से किसी एक का निश्चय नहीं होना संशय मिथ्यात्व है। जैसे-वस्त्र सहित वेष से मोक्ष होता है या निर्गंरथ मुद्रा से इत्यादि संशय करते रहना।
प्रश्न-७८९ मिथ्यात्व के अधिक से अधिक कितने भेद हो जाते हैं?
उत्तर-७८९ मिथ्यात्व के अधिक से अधिक १३ भेद हो जाते हैं।
प्रश्न-७९० श्रीवंदक और संघ श्री का क्या सम्बंध था?
उत्तर-७९० श्री वंदक राजा धनदत्त का मंत्री बौद्धधर्मी था और संघ श्री बौद्ध गुरु थे अर्थात् उन दोनों में गुरु-शिष्य का संबंध था।
प्रश्न-७९१ श्री वंदक की आँखें क्यों फूट गयीं?
उत्तर-७९१ श्री वंदक की आँखें मुनिनिन्दा और मिथ्यात्व के पाप से फूट गयीं।
प्रश्न-७९२ मिथ्यात्व क्यों बुरा है?
उत्तर-७९२ मिथ्यात्व अनंत काल तक संसार में दु:ख देने वाला है इसलिए बुरा है।
प्रश्न-७९३ दान किसे कहते हैं?
उत्तर-७९३ स्व और पर के अनुग्रह के लिए अपना धन आदि वस्तु का देना दान कहलाता है।
प्रश्न-७९४ दान के कितने भेद हैं व कौन-कौन से हैं?
उत्तर-७९४ दान के चार भेद हैं-आहारदान, औषधिदान, शास्त्रदान और अभयदान।
प्रश्न-७९५ पात्र किसे कहते हैं? उनके कितने भेद हैं?
उत्तर-७९५ जिनको दान दिया जाता है उन्हें पात्र कहते हैं। उनके तीन भेद हैं- १. सत्पात्र २. कुपात्र ३. अपात्र
प्रश्न-७९६ सत्पात्र के कितने व कौन-कौन से भेद हैं?
उत्तर-७९६ सत्पात्र के तीन भेद हैं- १. उत्तम पात्र – नग्न दिगम्बर साधु २. मध्यम पात्र- आर्यिका, क्षुल्लक, ऐलक तथा व्रती ३. जघन्य पात्र- व्रतरहित सम्यग्दृष्टि श्रावक
प्रश्न-७९७ कुपात्र व अपात्र का लक्षण बताते हुए यह बताओ कि कुपात्र व अपात्र में दिये हुए दान का क्या फल मिलता है?
उत्तर-७९७ सम्यक्त्व रहित मिथ्या तप करने वाले कुपात्र एवं सम्यक्त्व तथा व्रतरहित जीव अपात्र कहलाते हैं। कुपात्र के दान से कुभोगभूमि मिलती है और अपात्र में दिया गया दान व्यर्थ चला जाता है।
प्रश्न-७९८ नवधाभक्ति के नाम बताते हुए उनका लक्षण बताओ?
उत्तर-७९८ पड़गाहन, उच्चासन, पाद प्रक्षाल, पूजन, नमस्कार करना, मन, वचन, काय की शुद्धि और आहार जल शुद्ध यह नवधाभक्ति हे। आये हुए साधुओं को देखकर उनका पड़गाहन करना, नमस्कार आदि करना तथा मन, वचन, काय की शुद्धि बोलकर भोजन की शुद्धि कहना नवधाभक्ति कहलाती है।
प्रश्न-७९९ दाता के सात गुण कौन-कौन से माने हैं?
उत्तर-७९९ श्रद्धा, भक्ति, संतोष, विवेक, अलोभ, क्षमा और सत्य ये दाता के सात गुण माने गये हैं।
प्रश्न-८०० अक्षीणऋद्धि का क्या फल है?
उत्तर-८०० अक्षीणऋाद्ध के माहात्म्य से खाने योग्य वस्तु अक्षीण अर्थात् बढ़ती ही चली जाती हैं।
प्रश्न-८०१ धन्यकुमार की कहानी संक्षेप में बताओ?
उत्तर-८०१ भोगवती नगरी के राजा कामवृष्टि की रानी मिष्टदाना के गर्भ में पापी बालक के आते ही राजा की मृत्यु हो गयी और राजा के नौकर सुकृतपुण्य के हाथ में राज्य चला गया। माता ने बालक को पुण्य हीन जानकर उसका नाम अकृतपुण्य रख दिया और पराई मजदूरी कर उसका पालन किया। किसी दिन वह बालक सुकृतपुण्य के खेत पर काम करने गया। राजा ने अपने स्वामी का पुत्र जान उसे कुछ दीनारें मजदूरी में दी परन्तु वह अंगार बन गर्इं जब उसे उसकी इच्छानुसार चने दिये। यह देख माता वह नगर छोड़ दूसरे नगर में एक सेठ के घर काम करने लगी। एक दिन सेठ के घर बच्चों को खीर खाते देख इसने भी खीर माँगी तब वह बालक के हाथों पिटा तब दयालु सेठ ने उसकी माँ को खीर बनाने का समान दे दिया। माँ उसे समझाकर कि ‘कोई मुनि आवे तो रोक लेना’ स्वयं जल भरने चली गयी तभी उधर से एक साधु आ गये बालक ने जबरन उन्हें रोक लिया, इतने में उसकी माँ आ गयी और विधिवत् पड़गाहन कर खीर का आहार दिया वह मुनि अक्षीणऋद्धि धारी थे अत: उसने वह खीर पूरे गाँव वालों को खिलाई पर खत्न न हुई। आहार दान की अनुमोदना के कारण ही वह बालक आगे चलकर धन्यकुमार हुआ।
प्रश्न-८०२ वृषभसेना ने पूर्वजन्म में क्या-क्या पुण्या किया था जिससे औषधि ऋद्धि हुई?
उत्तर-८०२ वृषभसेना ने पूर्वजन्म में मुनि के कष्ट दूर करने के लिए उनकी औषधि दान पूर्वक भरपूर सेवा सुश्रूषा की जिससे वह अगले भव में जाकर वृषभसेना हुई जिसको औषधि ऋद्धि प्राप्त थी।
प्रश्न-८०३ औषधिदान दान का लक्षण बताओ इससे हमें क्या फल मिलता है?
उत्तर-८०३ उत्तम आदि पात्रों को किसी प्रकार का रोग हो जाने पर शुद्ध प्रासुक औषधि का दान देना औषधिदान है। यह दान भव-भव में निरोग शरीर प्रदान करके अंत में मोक्ष प्रदान करने वाला है।
प्रश्न-८०४ शास्त्रदान का लक्षण बताओ? शास्त्रदान से क्या फल मिलता है?
उत्तर-८०४ जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित और गणधर आदि मुनियों द्वारा रचित शास्त्र को सच्चे शास्त्र कहते हैं। ऐसे आचार्य प्रणति निर्दोष आगम ग्रंथों को मुद्रण कराकर उत्तम पात्रों को देना या विद्यालय खोलना, धार्मिक शिक्षण की व्यवस्था करना आदि शास्त्रदान कहलाता है इसके दान से केवलज्ञान प्राप्त होता है।
प्रश्न-८०५ शास्त्रदान में कौन प्रसिद्ध हुआ? कथा संक्षेप में बताओ?
उत्तर-८०५ शास्त्रदान में एक ग्वाला प्रसिद्ध हुुआ कथा इस प्रकार से है—कुरुमरी गाँव में एक ग्वाले ने एक बार जंगल के वृक्ष की कोटर में एक जैन ग्रंथ देखा। उसे घर ले जाकर उसकी पूजा करता था एक दिन वह ग्रंथ एक मुनिराज को दान में दे दिया वह ग्वाला मर कर उसी गाँव के चौधरी का पुत्र हो गया। एक दिन उन्हीं मुनि को देख जातिस्मरण हो जाने से दीक्षित हो मुनि हो गया। कालान्तर में वह जीव राजा कौंडेश हो गया। राज्य सुखों को भोगकर राजा ने मुनिदीक्षा ले ली, चूँकि ग्वाले के जन्म में शास्त्रदान दिया था जिससे वह थोड़े ही दिनों में द्वादशांग के पारगामी श्रुतकेवली बन गये।
प्रश्न-८०६ अभयदान का लक्षण बताते हुए उसका फल बताओ?
उत्तर-८०६ उत्तम आदि पात्रों को धर्मानुकूल वसतिका में ठहराना अथवा नई वसतिका बनवाकर साधुओं के लिए सुविधा कराना अभयदान है। इस दान के प्रभाव से प्राणी निर्भय होकर मोक्षमार्ग के विघ्नों को दूर करके निर्भय मोक्ष पद प्राप्त कर लेते हैं।
प्रश्न-८०७ उपकरण दान में क्या-क्या दे सकते हैं?
उत्तर-८०७ उपकरण दान में मुनि आर्यिका को पिच्छी-कमण्डलु देना, आर्यिका-क्षुल्लिका को साड़ी, ऐलक-क्षुल्लक को कोपीन-चादर आदि देना तथा लेखनी, स्याही, कागज आदि देना भी उपकरणदान कहलाता है।
प्रश्न-८०८ सूकर और व्याघ्र कौन थे और मरकर कहाँ गये?
उत्तर-८०८ कुम्हार का जीव सूकर था तथा नाई का जीव व्याघ्र था जिसमें कुम्हार ने मुनि को वसतिका में ठहराया था और नाई ने मुनि को निकालकर एक सन्यासी हो ठहराया था।सूकर के भाव मुनि रक्षा के थे अत: वह स्वर्ग गया और व्याघ्र हिंसा के भाव से नरक गया।
प्रश्न-८०९ दानदत्ति और दयादत्ति में क्या अंतर है?
उत्तर-८०९ उपर्युक्त चार प्रकार से पात्रों को दान देना दानदत्ति है। और दीन, दु:खी, अन्धे, लंगड़े, रोगी आदि को करुणापूर्वक भोजन, वस्त, औषधि आदि दान देना दयादत्ति है।
प्रश्न-८१० अन्वयदत्ति का लक्षण बताओ?
उत्तर-८१० अपने पुत्र को घुर का भार सौंपकर आप निश्चिन्त हो धर्माराधन करना अन्वयदत्ति है।
प्रश्न-८११ चार प्रकार के दानों में सर्वश्रेष्ठ दान कौन सा है?
उत्तर-८११ चार प्रकार के दानों में सर्वश्रेष्ठ दान आहारदान है।
प्रश्न-८१२ गति किसे कहते हैं?
उत्तर-८१२ जो एक पर्याय से दूसरी पर्याय में ले जाये वह गति है।
प्रश्न-८१३ गतियाँ कितनी होती हैं नाम बताओ?
उत्तर-८१३ गतियाँ चार होती हैं-मनुष्यगति, देवगति, तिर्यंच गति और नरगगति।
प्रश्न-८१४ नरक गति किसे कहते हैं?
उत्तर-८१४ नामकर्म के उदय से नरक में जन्म लोन नरक गति है।
प्रश्न-८१५ नरक गति में क्या-क्या दु:ख हैं?
उत्तर-८१५ नरक में हर समय मार-काट का दु:ख ही होता रहता है, सुख का लेश भी नहीं है।
प्रश्न-८१६ तिर्यंचगति किसे कहते हैं?
उत्तर-८१६ नामकर्म के उदय से जीव तिर्यंच होते हैं।
प्रश्न-८१७ मनुष्यगति का लक्षण बताओ?
उत्तर-८१७ नामकर्म के उदय से मनुष्य में जन्म लेकर स्त्री, पुरुष तथा नपुंसक होते हैं।
प्रश्न-८१८ देवगति का लक्षण बताओ?
उत्तर-८१८ नामकर्म के उदय से देवों में उत्तम वैक्रियक शरीर प्राप्त करके दिव्य सुखों का भोग करते हैं।
प्रश्न-८१९ बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह से कौन सी गति मिलती है?
उत्तर-८१९ बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह से नरक गति मितती है।
प्रश्न-८२० मायाचारी करने से कौन सी गति मिलती है?
उत्तर-८२० मायाचारी करने से तिर्यंच गति मिलती है।
प्रश्न-८२१ अल्प आरंभ और अल्प परिग्रह से कौन सी गति मिलती है?
उत्तर-८२१ अल्प आरम्भ और अल्प परिग्रह से मनुष्य गति मिलती है।
प्रश्न-८२२ सरल स्वभाव एवं निर्मल परिणाम से कौन सी गति मिलती है?
उत्तर-८२२ सरल स्वभाव और निर्मल परिणाम से देवगति मिलती है।
प्रश्न-८२३ संसार में सबसे दुर्लभ पर्याय व दुर्लभ गति कौन सी है?
उत्तर-८२३ संसार में सबसे दुर्लभ पर्याय मनुष्य पर्याय और दुर्लभ गति मनुष्य गति है।
प्रश्न-८२४ चारों गतियों में सबसे अच्छी गति कौन सी है और क्यों?
उत्तर-८२४ चारों गतियों में सबसे अच्छी गति मनुष्य गति है क्योंकि हम मनुष्य गति से ही सम्यग्दर्शन प्राप्त कर मोक्ष जा सकते हैं।
प्रश्न-८२५ पेड़-पौधे कौन सी गति के जीव हैं?
उत्तर-८२५ पेड़-पौधे तिर्यंचगति के जीव हैं।
प्रश्न-८२६ पृथ्वी, जल, अग्नि एवं वायुकायिक जीव कौन सी गति के जीव हैं?
उत्तर-८२६ पृथ्वी, जल, अग्नि एवं वायुकायिक तिर्यंच गति के जीव हैं।
प्रश्न-८२७ तुम किस गति में हो?
उत्तर-८२७ हम मनुष्य गति में हैं।
प्रश्न-८२८ बंदर, हाथी, चींटी और स्त्री किस गति में हैं?
उत्तर-८२८ बंदर, हाथी तथा चींटी तो तिर्यंचगति के जीव हैं और स्त्री मनुष्यगति में हैं।
प्रश्न-८२९ कर्म किसे कहते हैं?
उत्तर-८२९ जो आत्मा को परतन्त्र करता है, दु:ख देता है, संसार में परिभ्रमण कराता है, उसे कर्म कहते हैं।
प्रश्न-८३० कर्मों के मूल भेद कितने हैं उनके नाम बताओ?
उत्तर-८३० कर्म के मूल आठ भेद हैं-१. ज्ञानावरण, २. दर्शनावरण, ३. वेदनीय, ४. मोहनीय, ५. आयु, ६. नाम, ७. गोत्र, ८. अन्तराय।
प्रश्न-८३१ कर्म के दो भेद कौन से हैं और उनके लक्षण क्या हैं?
उत्तर-८३१ कर्म के दो भेद हैं-द्रव्यकर्म और भाव कर्म। पुद्गल के पिण्ड को द्रव्यकर्म कहते हैं और उसमें जो फल देने की शक्ति है वह भावकर्म है अथवा कर्म के निमित्त से जो आत्मा के राग, द्वेष, अज्ञान आदि भाव होते हैं वह भावकर्म है।
प्रश्न-८३२ वेदनीय, नाम, गोत्र और आयु इन कर्मों के अलावा शेष चार कर्मों के लक्षण बताओ?
उत्तर-८३२ ज्ञानावरण-जो आत्मा के ज्ञान गुण को ढ़कता है उसे ज्ञानावरण कहते है। दर्शनावरण-जो आत्मा के दर्शन गुण को ढ़कता है उसे दर्शनावरण कहते है। मोहनीय-जिनके उदय से जीव अपने स्वरूप को भूलकर अन्य को अपना समझने लगता है वह मोहनीय है। अंतराय-जो दान, लाभ आदि में विघ्न डालता है उसे अंतराय कहते हैं।
प्रश्न-८३३ अघातिया कर्मों के नाम बताते हुए उनकी परिभाषा बताओ?
उत्तर-८३३ अघातिया कर्मों के नाम व परिभाषा—वेदनीय-जो आत्मा को सुख-दु:ख देता है वह वेदनीय है। आयु-जो जीव को नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव में किसी एक शरीर में रोके रखता है वह आयु है। नाम-जिससे शरीर और अंगोपांग आदि की रचना होती है उसे नामकर्म कहते हैं। गोत्र-जिससे जीव उच्च अथवा नीच कुल में पैदा होता है उसे गोत्र कर्म कहते हैं।
प्रश्न-८३४ आस्रव किसे कहते हैं? इसके कितने भेद हैं?
उत्तर-८३४ कर्मों के आने के द्वार को आस्रव कहते हैं। इसके दो भेद हैं-पुण्यास्रव व पापस्रव।
प्रश्न-८३५ ज्ञानावरणीय कर्म के आस्रव के क्या कारण हैं?
उत्तर-८३५ ज्ञानी से ईष्र्या करना, ज्ञानी के साधनों में विघ्न डालना, आने ज्ञान को छिपाना, दूसरों को नहीं बताना, गुरु का नाम छिपाना, ज्ञान का गर्व करना इत्यादि कार्यों से ज्ञानावरण कर्म का आस्रव होता है।
प्रश्न-८३६ दर्शनावरण कर्म के आस्रव के क्या कारण है?
उत्तर-८३६ जिनेन्द्र भगवान के दशनों में विघ्न डालना, किसी की आँख फोड़ना, दिन में सोना, मुनियों को देखकर ग्लानि करना, अपनी दृष्टि का गर्व करना इत्यादि से दर्शनवरण कर्म का आस्रव होता है।
प्रश्न-८३७ असाता वेदनीय कर्म के आस्रव के क्या कारण हैं?
उत्तर-८३७ अपने को अथवा दूसरे को दु:ख उत्पन्न करना, शोक करना, रोना-विलाप करना, जीव वध करना इत्यादि कार्यों से असाता वेदनीय का आस्रव होता है। प्रश्न-८३८ साता वेदनीय कर्म के आस्रव के क्या कारण हैं?
उत्तर-८३८ जीव दया करना, दान करना, संयम पालना, वात्सल्य करना, वैयावृत्ति करना आदि कार्यों से साता वेदनीय का आस्रव होता है।
प्रश्न-८३९ दर्शन मोहनीय कर्म का आस्रव कैसे होता है?
उत्तर-८३९ सच्चे देव, शास्त्र, गुरु और धर्म में दोष लगाना आदि से दर्शन मोहनीय का आस्रव होता है।
प्रश्न-८४० चारत्रि मोहनीय कर्म के आस्रव के क्या कारण हैं?
उत्तर-८४० कषायों की तीव्रता रखना, चारित्र में दोष लगाना, मलिन भाव करना आदि से चारित्र मोहनीय का आस्रव होता है।
प्रश्न-८४१ नरकायु का आस्रव कैसे होता है?
उत्तर-८४१ बहुत आरंभ और बहुत परिग्रह से नरकायु का आस्रव होता है।
प्रश्न-८४२ तिर्यंचायु, मनुष्यायु और देवायु का आस्रव कैसे होता है?
उत्तर-८४२ मायाचारी से तिर्यंचायु, थोड़ा आरंभ और थोड़े परिग्रह से मनुष्यायु और सम्यक्त्व, व्रतपालन, देश संयम, बालतप आदि से देवायु का आस्रव होता है।
प्रश्न-८४३ शुभ नाम कर्म के आस्रव के क्या कारण हैं?
उत्तर-८४३ मन, वचन, काय को सरल रखना, धर्मात्मा से विसंवाद नहीं करना, षोडशकारणभावना आदि से शुभ नामकर्म का आस्रव होता है।
प्रश्न-८४४ अशुभ नामकर्म का आस्रव कैसे होता है?
उत्तर-८४४ कुटिल भाव, झगड़ा, कलह आदि से अशुभ नाम कर्म का आस्रव होता है।
प्रश्न-८४५ नीच गोत्र के आस्रव के क्या कारण हैं?
उत्तर-८४५ दूसरे की निंदा और अपनी प्रशंसा करना, दूसरों के गुणों को ढ़कना और अपने झूठे गुणों का बखान करना, मद करना आदि से नीच गोत्र का आस्रव होता है।
प्रश्न-८४६ उच्च गोत्र का आस्रव कैसे होता है?
उत्तर-८४६ दूसरे की प्रशंसा करना, अपनी निंदा करना, दूसरे के दोषों को ढ़कना, अपने दोषों को प्रकट करना, गुरुओं के प्रति विनम्र प्रवृत्ति रखना, विनय करना आदि से उच्च गोत्र का आस्रव होता है।
प्रश्न-८४७ अंतराय कर्म का आस्रव कैसे होता है?
उत्तर-८४७ दान देने वाले को रोक देना, आश्रितों को धर्मस्थान नहीं करने देना, देव-द्रव्य-मंदिर के द्रव्य को हड़प जाना, दूसरों की भोगादि वस्तु या शक्ति में विघ्न डालना आदि से अंतराय कर्म का आस्रव होता है।
प्रश्न-८४८ आस्रव के १०८ भेद कैसे होते हैं?
उत्तर-८४८ समरंभ, समारंभ, आरंभ, मन, वचन, काय ये तीन, कृत, कारित, अनुमोदना ये तीन और क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार कषाय। इनका परस्पर गुणा करने से आस्रव के १०८ भेद होते हैं।
प्रश्न-८४९ बंध के कारण कितने हैं?
उत्तर-८४९ बंध के कारण-मिथ्यादर्शन १. अविरति-१२, प्रमाद-१५, कषाय-२५ और योग-१५ ये सब कर्म बंधन के कारण हैं।
प्रश्न-८५० बंध किसे कहते हैं तथा इसके कितने भेद हैं?
उत्तर-८५०.कषाय सहित जीव जो कर्म पुद्गलों को ग्रहण करता है वह बंध है। इसके चार भेद हैं-प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभागबंध और प्रदेशबंध।
प्रश्न-८५१प्रकृति बंध तथा स्थितिबंध में क्या अंतर है?
उत्तर-८५१ कर्मों का ज्ञानादि के ढ़कने का स्वभाव होना प्रकृति बंध है और कर्मों में आत्मा के साथ रहने की मर्यादा स्थितिबंध है।
प्रश्न-८५२अनुभाग बंध किसे कहते हैं?
उत्तर-८५२कर्मों में तीव्र मंद आदि फल देने की शक्ति अनुभाग बंध है।
प्रश्न-८५३ प्रकृति बंध के मूल भेद व उत्तर भेद कितने हैं?
उत्तर-८५३ प्रकृति बंध के मूल भेद आठ हैं-१. ज्ञानावरण २. दर्शनावरण ३. वेदनीय ४. मोहनीय ५. आयु ६. नाम ७. गोत्र और ८. अंतराय और भेद १४८ हैं।
प्रश्न-८५४ कर्मों के १४८ भेद किस प्रकार से हुए?
उत्तर-८५४ ज्ञानावरण के ५, दर्शनावरण के ९, वेदनीय के २, मोहनीय के २८, आयु के ४, नाम के ९३, गोत्र के २ और अंतराय के ५ ऐसे १४८ उत्तर भेद हैं।
प्रश्न-८५५ ज्ञानावरण के ५ भेदों के नाम बताओ?
उत्तर-८५५ ज्ञानावरण के ५ भेद हैं-१. मतिज्ञानावरण २. श्रुतज्ञानावरण ३.अवधिज्ञानावरण ४. मन:पर्ययज्ञानावरण और ५. केवलज्ञानावरण।
प्रश्न-८५६ दर्शनावरण के कितने भेद हैं?
उत्तर-८५६ दर्शनावरण के ९ भेद हैं—१. चक्षुदर्शनावरण २. अचक्षुदर्शनावरण ३. अवधिदर्शनावरण ४. केवलदर्शनावरण ५. निद्रा ६. निद्रानिद्रा ७. प्रचला ८. प्रचलाप्रचला ९. स्त्यानगृद्धि।
प्रश्न-८५७ पाँचों निद्राओं के लक्षण बताओ?
उत्तर-८५७ निद्रा-जिस कर्म के उदय से निद्रा आती है उसे निद्रा दर्शनावरण कहते हैं। निद्रानिद्रा-जिसके उदय से नींद पर नींद आती है उसे निद्रानिद्रा कहते हैं। प्रचला-जिसके उदय से प्राणी कुछ जागता है, कुछ सोता है उसे प्रचला कहते हैं। प्रचलाप्रचला-जिसके उदय से सोते समय मुख से लार बहती है और आंगोपांग भी चलते हैं उसे प्रचलाप्रचला कहते हैं। स्त्यानगृद्धि-जिसके उदय से प्राणी सोते समय नानाप्रकार के भयंकर काम कर डालता है और जागने पर कुछ मालूम नहीं रहता कि मैंने क्या किया है उसे स्त्यानगृद्धि कहते हैं।
प्रश्न-८५८ वेदनीय के भेदों को बताते हुए साता वेदनीय का लक्षण बताओ?
उत्तर-८५८ वेदनीय के दो भेद हैं-१. सातावेदनीय २. असातावेदनीय। सातावेदनीय-जिस कर्म के उदय से शारीरिक और मानसिक अनेक प्रकार की सुख सामग्री मिले या सुख मिले उसे साता वेदनीय कहते हैं।
प्रश्न-८५९ मोहनीय के मूल और उत्तर भेदों के नाम बताओ?
उत्तर-८५९ मोहनीय के मूल दो भेद हैं-दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय और इसके उत्तरभेद २८ हैं। दर्शनमोहनीय के ३ भेद और चारित्रमोहनीय के पहले दो भेद हैं-कषायवेदनीय और अकषायवेदनीय। कषायवेदनीय के १६ भेद और अकषायवेदनीय के ९ भेद ऐसे दर्शनमोह के ३ और चारित्रमोहनीय के २५ मिलकर २८ भेद हुए।
प्रश्न-८६० दर्शनमोहनीय किसे कहते हैं उसके कितने भेद हैं?
उत्तर-८६०जो आत्मा के सम्यक्त्व गुण का घात करता है उसे दर्शनमोहनीय कहते हैं। उसके तीन भेद हैं-मिथ्यात्व, सम्यक्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व।
प्रश्न-८६१चारित्रमोहनीय किसे कहते हैं? इसके कितने भेद हैं?
उत्तर-८६१जिस कर्म के उदय से आत्मा के चारित्र गुण का घात होता है उसे चारित्र मोहनीय कहते हैं। इसके दो भेद हैं-कषाय वेदनीय और अकषाय वेदनीय।
प्रश्न-८६२ कषायवेदनीय व अकषायवेदनीय में क्या अंतर है?
उत्तर-८६२ जो आत्मा के गुण-शुभ या शुद्ध भाव को कषाय है, नष्ट करता है उसे कषायवेदनीय कहते हैं तथा जो क्रोधादि की तरह आत्मा के गुणों का घात नहीं करे किन्तु किंचित् घात करे अथवा कषाय के साथ-साथ अपना फल देवे वह अकषाय वेदनीय है।
प्रश्न-८६३ नव नो कषाय के लक्षण बताओ?
उत्तर-८६३ हास्य-जिसके उदय से हँसी आवे। इति-जिसके उदय से इंद्रिय के विषयों में राग हो। अरति-जिसके उदय से विषयों में द्वेष हो। शोक-जिसके उदय से शोक या चिंता हो। भय-जिसके उदय से डर या उद्वेग हो। जुगुप्सा-जिसके उदय से दूसरे से ग्लानि हो। स्त्रीवेद-जिसके उदय से पुरुष से रमण की इच्छा हो। पुंवेद-जिसके उदय से स्त्री से रमने की इच्छा हो। नपुंसवेद-जिसके उदय से स्त्री-पुरुष दोनों से रमने की इच्छा हो।
प्रश्न-८६४ आयु कर्म के कितने भेद हैं? मनुष्यायु और देवायु में क्या अंतर है?
उत्तर-८६४ आयु कर्म के चार भेद हैं-नरकायु, तिर्यंचायु, मनुष्यायु और देवायु। जिस कर्म के उदय से प्राणी देव के शरीर में रुका हुआ हो उसे देवायु और जिस कर्म के उदय से प्राणी मनुष्य के प्राणी मनुष्य के प्राणी मनुष्य के शरीर के रुका हो उसे मनुष्यायु कहते हैं।
प्रश्न-८६५ नामकर्म के ९३ भेद कौन-कौन से हैं?
उत्तर-८६५ गति ४, जाति ५, शरीर ५, आंगोपांग ३, निर्माण १, बंधन ५, संघात ५, संस्थान ६, संहनन ६, स्पर्श ८, रस ५, गंध २, वर्ण ५, आनुपूर्वी ४, अगुरुलघु, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, उच्छवास, प्रशस्तविहायोगति, अप्रशस्तविहायोगति, प्रत्येक, साधारण, त्रस, स्थावर, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दु:स्वर, शुभ, अशुभ, सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त, अपर्याप्त, स्थिर, अस्थिर, आदेय, अनादेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति और तीर्थंकर ये ९३ प्रकृतियाँ हैं।
प्रश्न-८६६ गति किसे कहते हैं इसके कितने भेद हैं?
उत्तर-८६६ जिस कर्म के उदय से प्राणी दूसरे भव या पर्याय में जाता है, वह गति है। उसके चार भेद हैं-नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति।
प्रश्न-८६७ जाति किसे कहते हैं इसके कितने भेद हैं?
उत्तर-८६७ जिस कर्म के उदय से अनेक प्राणियों में अविरोधी समान अवस्था प्राप्त होती है उसे जाति कहते हैं इसके पाँच भेद हैं—एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय जाति, त्रीन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रिय जाति और पंचेन्द्रिय जाति।
प्रश्न-८६८ शरीर का लक्षण बताते हुए उसके भेदों को बताओ?
उत्तर-८६८ जिस कर्म के उदय से प्राणी की शरीर रचना होती है वह शरीर है। उसके ५ भेद हैं—औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तैजस और कार्माण।
प्रश्न-८६९ आंगोपांग का लक्षण बताते हुए उसके भेदों को बताओ?
उत्तर-८६९ जिस कर्म के उदय से अंग और उपांग की रचना होती है, उसे आंगोपांग कहते हैं। इसमे तीन भेद हैं—औदारिक शरीर अंगोपांग, वैक्रियक शरीर आंगोपांग और आहाकर शरीर आंगोपांग।
प्रश्न-८७० निर्माण किसे कहते हैं?
उत्तर-८७० जिस कर्म के उदय से आंगोपांग की यथास्थान और यथाप्रमाण रचना होती है वह निर्माण है।
प्रश्न-८७१ बंधन नाम कर्म का लक्षण बताते हुए उसके भेदों को बताओ?
उत्तर-८७१ शरीर नामकर्म के उदय से ग्रहण किये गये पुद्गल स्कंधों का परस्पर मिलन जिस कर्म के उदय से होता है उसे बंधन नामकर्म कहते हैं इसके ५ भेद हैं—औदारिक बंधन, वैक्रियक बंधन, आहारक बंधन, तैजस बंधन और कार्माण बंधन।
प्रश्न-८७२ संघात किसे कहते हैं वह कितने प्रकार का है?
उत्तर-८७२ जिस कर्म के उदय से औदारिक आदि शरीर के प्रदेशों का परस्पर छिद्ररहित एकमेकपना होता है वह संघात है। उसके पाँच भेद हैं—औदारिक संघात, वैक्रियक संघात, आहारक संघात, तैजस संघात और कार्माण संघात।
प्रश्न-८७३ संस्थान का लक्षण बताते हुए उसके भेदों को बताइए?
उत्तर-८७३ जिस कर्म के उदय से शरीर का आकार बनता है वह संस्थान है। इसके छ: भेद हैं-समचतुरस्रसंस्थान, न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थान, स्वातिसंस्थान, कुब्जकसंस्थान, वामनसंस्थान और हुंडकसंस्थान।
प्रश्न-८७४ स्पर्श किसे कहते हैं इसके कितने भेद हैं?
उत्तर-८७४ जिस कर्म के उदय से शरीर में स्पर्श हो वह स्पर्श है। इसके आठ भेद हैं—कोमल, कठोर, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष।
प्रश्न-८७५ रस किसे कहते हैं इसके कितने भेद हैं?
उत्तर-८७५ जिस कर्म के उदय से शरीर में रस हो वह रस है, इसके पाँच भेद हैं—तिक्त (चरपरा), कटुक (कडुवा), कषाय (कषायला), आम्ल (खट्टा) और मधुर (मीठा)
प्रश्न-८७६ गंध का लक्षण बताते हुए उसके भेदों को बताओ?
उत्तर-८७६जिस कर्म के उदय से शरीर में गंध हो उसके दो भेद हैं—सुगंध और दुर्गन्ध।
प्रश्न-८७७ वर्ण के कितने भेद हैं?
उत्तर-८७७ जिस कर्म के उदय से शरीर में रूप हो उसके पाँच भेद हैं—नील, शुक्ल, कृष्ण, रक्त और पीत।
प्रश्न-८७८आनुपूव्र्य का लक्षण बताते हुए उसके भेद बताओ?
उत्तर-८७८जिस कर्म के उदय से अन्य गति को जाते हुए प्राणी का आकार विग्रहगति में पूर्व शरीर के आकार का रहता है। इसके चार भेद हैं—नरकगत्यानुपूर्व, तिर्यग्गत्यानुपूर्व, मनुष्यगत्यानुपूर्व, देवगत्यानुपूर्व।
प्रश्न-८७९ अगुरुलघु किसे कहते हैं?
उत्तर-८७९ जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर लोहे के गोले की तरह भारी और आक की रुई की तरह हल्का नहीं होवे, वह अगुरुलघु है।
प्रश्न-८८० उपघात और परघात में क्या अंतर है?
उत्तर-८८० जिस कर्म के उदय से अपने ही घातक आंगोपांग होते हैं वह उपघात है और जिस कर्म के उदय से पर के घातक अंगोपांग होते हैं।
प्रश्न-८८१आतप और उद्योत का लक्षण बताओ?
उत्तर-८८१ जिस कर्म के उदय से आतपकारी शरीर होता है ‘‘इसका उदय सूर्य के विमान में स्थित बादर पृथ्वीकायिक जीवों के होता है’’ वह आतप है। उद्योत उसे कहते हैं जिस कर्म के उदय से उद्योत रूप शरीर हो। इसका उदय चंद्रमा के विमान में स्थित पृथ्वीकायिक जीवों के तथा जुगनू आदि जीवों के होता है।
प्रश्न-८८२ विहायोगति का लक्षण बताते हुए उनके भेद बताओ?
उत्तर-८८२ जिस कर्म के उदय से आकाश में गमन होता है। इसके दो भेद हैं—प्रशस्तविहायोगति और अप्रशस्तविहायोगति।
प्रश्न-८८३ प्रत्येक शरीर और साधारण में क्या अंतर है?
उत्तर-८८३ जिस कर्म के उदय से एक शरीर का स्वामी एक ही जीव होता है वह प्रत्येक शरीर है। और जिस कर्म के उदय से एक शरीर के अनेक जीव स्वामी होते हैं।
प्रश्न-८८४ त्रस और स्थावर का लक्षण बताओ?
उत्तर-८८४ जिस कर्म के उदय से द्वीन्द्रिय आदि जीवों में जन्म होता है वह त्रस है तथा जिस कर्म के उदय से एकेन्द्रिय जीवों में जन्म होता है।
प्रश्न-८८५ सुभग और दुर्भम में क्या अंतर है?
उत्तर-८८५ जिस कर्म के उदय से दूसरों को अपने से प्रीति होती है वह सुभग है तथा जिस कर्म के उदय से रूपादि गुणों से युक्त होने पर भी दूसरे जीवों को अप्रीति होती है।
प्रश्न-८८६ सुस्वर व दुस्वर किसे कहते हैं?
उत्तर-८८६ जिस कर्म के उदय से अच्छा स्वर हो वह सुस्वर तथा जिस कर्म के उदय से खराब स्वर हो वह दुस्वर है।
प्रश्न-८८७ शुभ और अशुभ का लक्षण बताइये?
उत्तर-८८७ जिस कर्म के उदय से मस्तक आदि अवयव सुन्दर मालूम हो वह शुभ है तथा जिस कर्म के उदय से शरीर के अवयव मनोहर नहीं मालूम हो वह अशुभ है।
प्रश्न-८८८ बादर तथा सूक्ष्म की परिभाषा बताओ?
उत्तर-८८८ जिस कर्म से दूसरों को रोकने और दूसरों से रुकने वाला शरीर प्राप्त हो वह बादर तथा जिस कर्म के उदय से दूसरों को नहीं रोकने वाला शरीर प्राप्त हो वह सूक्ष्म है।
प्रश्न-८८९ पर्याप्ति तथा अपर्याप्ति में क्या अंतर है?
उत्तर-८८९ जिस कर्म के उदय से अपने योग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण हो जावें वह पर्याप्ति और जिस कर्म के उदय से पर्याप्तियों की पूर्णता न हो, बीच में ही मरण हो जावे वह अपर्याप्ति है।
प्रश्न-८९०स्थिर तथा अस्थिर नाम कर्म का लक्षण बताओ?
 उत्तर-८९०जिस कर्म के उदय से शरीर के रस आदि धातु तथा वात पित्तादि उपधातु अपने-अपने स्थान में ठीक रहें, अनेक व्रत उपवास आदि से भी शिथिलता न आवे वह स्थिर तथा जिस कर्म के उदय से शरीर की धातु-उपधातुएँ अपने स्थान में स्थिर नहीं रहें, किंचित् उपवास आदि से शरीर अस्वस्थ हो जावे वह अस्थिर नामकर्म है। प्रश्न-८९१ आदेय तथा अनादेय में अंतर बताओ?
उत्तर-८९१ जिस कर्म के उदय से शरीर में प्रभा रहती है वह आदेय और जिस कर्म के उदय से शरीर में कांति नहीं होती है वह अनादेय है।
प्रश्न-८९२ यश:कीर्ति तथा अयश:कीर्ति का लक्षण बताओ?
उत्तर-८९२ जिस कर्म के उदय से अपना पुण्य गुण जगत् में प्रकट हो अर्थात् संसार में अपनी तारीफ होवे वह यश:कीर्ति तथा जिस कर्म के उदय से जीव की निन्दा होती है वह अयश:कीर्ति है।
प्रश्न-८९३ तीर्थंकर पद की प्राप्ति किस नाम कर्म के उदय से होती है?
उत्तर-८९३ तीर्थंकर पद की प्राप्ति तीर्थंकर प्रकृति नामकर्म के उदय से होती है।
प्रश्न-८९४ गोत्र कर्म के कितने भेद हैं उनके नाम लिखो?
उत्तर-८९४ गोत्र कर्म के दो भेद हैं-उच्च गोत्र और नीच गोत्र।
प्रश्न-८९५अंतराय कर्म के भेदों को बताते हुए दानान्तराय का लक्षण बताओ?
उत्तर-८९५ अंतराय कर्म के ५ भेद हैं-दानांतराय, लाभांतराय, भोगांतराय, उपभोगांतराय और वीर्यांतराय।
प्रश्न-८९६ पुण्य और पाप प्रकृति की कुल संख्या कितनी है?
उत्तर-८९६ पुण्य प्रकृति और पाप प्रकृति की कुल संख्या १६८ है।
प्रश्न-८९७ पुण्य प्रकृतियों के नाम बताओ?
उत्तर-८९७ सातावेदनीय, तिर्यंचायु, मनुष्यायु, देवायु, उच्च गोत्र, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, पंचेन्द्रिय जाति, शरीर ५, बंधन ५, संघात ५, आंगोपांग ३, शुभ स्पर्श, रस, गंध, वर्ण के २०, समचतुरस संस्थान, वङ्कावृषभनाराचसंहनन, अगुरुलघु, परघात, आतप, उद्योत, उच्छवास, प्रशस्त्तविहायोगति, प्रत्येक शरीर, त्रस, सुभग, शुभ, सूक्ष्म, पर्याप्ति, स्थिर, आदेय, यश:कीर्ति, निर्माण और तीर्थंकर के ६८ पुण्य प्रकृतियाँ हैं।
प्रश्न-८९८ बंध, उदय और सत्त्व का लक्षण बताओ?
उत्तर-८९८ कर्मों का आत्मा से संबंध होना बंध है। स्थिति को पूरी करके कर्म के फल देने को उदय कहते हैं। आत्मा से पुद्गल का कर्म रूप रहना सत्त्व है।
प्रश्न-८९९ आत्मा के साथ कर्मों का संबंध कब से है?
उत्तर-८९९ आत्मा के साथ कर्मों का संबंध अनादि काल से है।
प्रश्न-९००यह सारा विश्व कब से बना है?
उत्तर-८९० यह सम्पूर्ण विश्व अनादि निधन है, इसे न तो किसी ने बनाया है और न कोई नष्ट कर सकता है।
प्रश्न-९०१ आपमें कितने कर्म हैं?
उत्तर-९०१ हममें सभी कर्म हैं।
प्रश्न-९०२ कौन सा कर्म विशेष दु:खदायी है?
उत्तर-९०२ मोहनीय कर्म विशेष दु:खदायी है।
प्रश्न-९०३ जीवों को कर्म बंध कब होता है?
उत्तर-९०३ कोई भी जीव जो अच्छे या बुरे भाव करता है या बुरे वचन बोलता है अथवा बुरे कार्य करता है, उसी के अनुसार पुण्य और पापरूपी कर्मों का बंध होता है। प्रश्न-९०४ सुन्दर शरीर किस कर्म के उदय से प्राप्त होता है?
उत्तर-९०४ शुभ नाम कर्म के उदय से सुन्दर शरीर प्राप्त होता है।
प्रश्न-९०५ उच्च नीच कुल में उत्पन्न कराना कौन से कर्म का काम है?
उत्तर-९०५ उच्च नीच कुल में उत्पन्न कराना उच्च नीच गोत्र कर्म का काम है।
प्रश्न-९०६ कितनी कर्म प्रकृतियों का नाश होने पर अर्हन्त अवस्था प्राप्त होती है?
उत्तर-९०६ ६३ कर्म प्रकृतियों का नाश होने पर अर्हन्त अवस्था प्राप्त होती है।
प्रश्न-९०७ भलाई करने पर भी निन्दा मिलना किस कर्म के उदय से?
उत्तर-९०७ अयश:कीर्ति नामकर्म के उदय से भलाई करने पर भी निन्दा मिलती है।
प्रश्न-९०८ दान आदि धर्म कार्यों में जो विघ्न डालता है उसे कौन से कर्म का बंध होता है?
उत्तर-९०८ दान आदि धर्म कार्यों में जो विघ्न डालता है उसे दानांतराय कर्म का बंध होता है।
प्रश्न-९०९ ईश्वर को सृष्टि का कर्ता मानने से क्या-क्या दोष आते हैं?
उत्तर-९०९ यदि ईश्वर परम पिता दयालु भगवान है तो वह किसी को भी दु:ख क्यों देता है। यदि कहो कि उस जीव ने पाप किया था तो उस ईश्वर ने पाप की रचना क्यों की और पानी मनुष्य क्यों बनाए इसीलिए भगवान किसी के सुख-दु:ख का कत्र्ता नहीं है या सृष्टि का कत्र्ता नहीं है।
प्रश्न-९१० कर्मों का बंध कैसे होता है?
उत्तर-९१० कोई भी जीव जो अच्छे या बुरे भाव करता है या बुरे वचन बोलता है अथवा बुरे कार्य करता है उसी के अनुसार पुण्य और पाप रूपी कर्मों का बंध होता है। प्रश्न-९११ क्या हर कोई जीव परमात्मा बन सकता है?
उत्तर-९११ हाँ, प्रत्येक जीव तपश्चरण कर अपने आत्मस्वरूप की प्राप्ति कर परमात्मा बन सकता है।
प्रश्न-९१२ रत्नत्रय के कितने भेद हैं?
उत्तर-९१२ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र को रत्नत्रय कहते हैं।
प्रश्न-९१३ व्यवहार सम्यग्दर्शन किसे कहते हैं?
उत्तर-९१३ जीवादि तत्त्वों का और सच्चे देव, शास्त्र, गुरु का २५ दोष रहित श्रद्धान करना व्यवहार सम्यग्दर्शन है।
प्रश्न-९१४ व्यवहार सम्यग्ज्ञान किसे कहते हैं?
उत्तर-९१४ तत्त्वों के स्वरूप को संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय दोष रहित जैसा का तैसा जानना सम्यग्ज्ञान है। सम्यग्दर्शन होने पर ही ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाता है।
प्रश्न-९१५ व्यवहार सम्यग्चारित्र किसे कहते हैं? इसके कितने भेद हैं?
उत्तर-९१५ अशुभ-पापक्रियाओं से हटकर शुभ-पुण्यक्रियाओं में प्रवृत्ति करना सम्यग्चारित्र कहलाता है। इसके दो भेद हैं-सकल चारित्र एवं विकल चारित्र।
प्रश्न-९१६ सकलचारित्र किसे कहते हैं?
उत्तर-९१६ सम्पूर्ण परिग्रह के त्यागी मुनियों के चारित्र को सकलचारित्र कहते हैं, यह पाँच महाव्रत आदि २८ मूलगुण रूप होता है।
प्रश्न-९१७ विकल चारित्र किसे कहते हैं?
उत्तर-९१७ श्रावक के एकदेश चारित्र को विकलचारित्र कहते हैं इसके अणुव्रत आदि १२ व्रतों से १२ भेद होते हैं और दर्शन प्रतिमा आदि ११ प्रतिमा से ११ भेद होते हैं। प्रश्न-९१८ निश्चय सम्यग्दर्शन किसे कहते हैं?
उत्तर-९१८ परद्रव्यों से भिन्न अपनी आत्मा का श्रद्धान करना निश्चय सम्यग्दर्शन है।
प्रश्न-९१९ निश्चय सम्यग्ज्ञान और निश्चय सम्यग्चारित्र में क्या अंतर है?
उत्तर-९१९ परद्रव्यों से भिन्न अपनी आत्मा को जानना निश्चय सम्यग्ज्ञान तथा पंचेन्द्रिय विषयों से और कषायों से रहित होकर निर्विकल्प शुद्ध आत्मा के स्वरूप में लीन होना निश्चय सम्यग्चारित्र है।
प्रश्न-९२० व्यवहार रत्नत्रय और निश्चयरत्नत्रय में क्या अंतर है?
उत्तर-९२० व्यवहार रत्नत्रय साधन है और निश्चयरत्नत्रय साध्य है अर्थात् व्यवहार रत्नत्रय के होने पर भी निश्चय रत्नत्रय प्रकट होता है पहले नहीं होता।
प्रश्न-९२१ छठे गुणस्थानवर्ती मुनियों का कौन सा रत्नत्रय होता है?
उत्तर-९२१ छठें गुणस्थानवर्ती मुनियों के व्यवहार रत्नत्रय होता है।
प्रश्न-९२२ निश्चय रत्नत्रय किन्हें होता है?
उत्तर-९२२ निश्यच रत्नत्रय निर्विकल्प ध्यान की एकाग्र परिणति में सातवें, आठवें आदि गुणस्थनवर्ती मुनियों के ही होता है।
प्रश्न-९२३ निश्चय रत्नत्रय श्रावकों को होता है या नहीं?
उत्तर-९२३ निश्चय रत्नत्रय श्रावकों को नहीं होता है।
प्रश्न-९२४ भावनाएँ कितनी होती हैं?
उत्तर-९२४ भावनाएँ बारह होती हैं।
प्रश्न-९२५ बारह भावनाओं के नाम बताओ?
उत्तर-९२५ अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म ये बारह भावनाएँ हैं।
प्रश्न-९२६एकत्व भावना और धर्म भावना का क्या लक्षण है?
उत्तर-९२६ एकत्व भावना— आप अकेला अवतरै, मरे अकेला होय। यों कबहू इस जीव को, साथी सगा न कोय।। धर्म भावना— जांचे सुरतरु देय सुख, चिन्तत चिन्ता रैन। बिन जांचे बिन चिंतये, धर्म सकल सुख दैन।।
प्रश्न-९२७ अशरण और अशुचि भावना सुनाओ?
उत्तर-९२७ अशरण भावना- दल बल देवी देवता, मात पिता परिवार। मरती बिरियां जीव को, कोई न राखनहार।। अशुचि भावना- दिपै चाम चादर मढ़ी, हाड़-पींजरा देह। भीतर या सम जगत में, और नहीं घिन गेह।।
प्रश्न-९२८ सल्लेखना किसे कहते हैं?
उत्तर-९२८ मरण के निकट आने पर गृह हो छोड़कर अथवा घर में अन्नादि आहार को धीरे-धीरे छोड़ते हुए क्रम से कषायों को भी कृश करते हुए परस्पर में सभी को क्षमाकर व कराकर नि:शल्य हो णमोकार मंत्र का स्मरण करते हुए मरना सल्लेखना कहलाती है।
प्रश्न-९२९ सल्लेखना कितने प्रकार की होती हैं?
उत्तर-९२९ सल्लेखना दो प्रकार की होती है—१. यम सल्लेखना २. नियम सल्लेखना।
प्रश्न-९३० लब्धियाँ कितनी होती हैं नाम बतावें?
उत्तर-९३० लब्धियाँ पाँच होती हैं—क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करण।
प्रश्न-९३१ ये लब्धियाँ कौन भी भव्य को तथा कौन सी अभव्य को होती हैं?
उत्तर-९३१ पहले की चार लब्धियाँ भव्य-अभव्य दोनों को हो सकती हैं किन्तु पाँचवीं करणलब्धि भव्यजीव को ही होती है।
प्रश्न-९३२ करण लब्धि किसे कहते हैं तथा इसके कितने भेद हैं?
उत्तर-९३२ अभव्य के योग्य ऐसे चार लब्धि रूप परिणामों को समाप्त करना करण लब्धि है। इसके तीन भेद हैं-अध:करण, अपूर्वकरण व अनिवृत्तिकरण।
प्रश्न-९३३ लेश्या कितनी होती हैं उनके नाम बताओ?
उत्तर-९३३ लेश्याएँ छह होती हैं-कृष्ण, नील, कपोत। पीत, पद्म व शुक्ल।
प्रश्न-९३४ इनमें से कौन सी लेश्या शुभ होती हैं और कौन सी अशुभ होती हैं?
उत्तर-९३४ सच्चे देव किसे कहते हैं?
प्रश्न-९३५ जो वीतरागी, सर्वज्ञ और हितोपदेशी हैं तथा अर्हंत, तीर्थंकर, जिनेन्द्र आदि नामों से कहे जाते हैं वे सच्चे देव कहलाते हैं।
उत्तर-९३५ सच्चे शास्त्र का लक्षण बताओ?
प्रश्न-९३६ जो सर्वज्ञ देव का कहा हुआ है और उन्हीं के वचनों के आधार पर आचार्यों द्वारा कहा गया है वही सच्चा शास्त्र है।
उत्तर-९३६ सच्चे गुरु की परिभाषा लिखो?
प्रश्न-९३७ जो विषयों की आशा से रहित हैं, सम्पूर्ण आरम्भ और परिग्रह से रहित हैं, नग्न दिगम्बर मुनि हैं वे सच्चे गुरु हैं।
उत्तर-९३७ देव, शास्त्र, गुरु इन तीनों में से आज कौन-कौन है?
प्रश्न-९३८ देव, शास्त्र, व गुरु इन तीनों में से वर्तमान में सभी हैं।
उत्तर-९३८ इनके दर्शन से क्या फल मिलता है?
प्रश्न-९३९ इनके दर्शन से पुण्य कर्म का बंध तथा पाप कर्म का नाश होता है।
उत्तर-९३९ दर्शन करते समय क्या-क्या चढ़ाना चाहिए?
प्रश्न-९४० दर्शन करते समय क्या-क्या चढ़ाना चाहिए?
उत्तर-९४० दर्शन करते समय चावल, लौंग, सुपारी, फल आदि चढ़ाना चाहिए।
प्रश्न-९४१ मंदिर के दरवाजे पर प्रवेश करते समय क्या बोलना चाहिए?
उत्तर-९४१ मंदिर के दरवाजे पर प्रवेश करते समय बोलना चाहिए-ॐ जय जय जय, नि:सही, नि:सही, नि:सही, नमोऽस्तु, नमोऽस्तु, नमोऽस्तु।
प्रश्न-९४२ देवदर्शन कैसे करना चाहिए?
उत्तर-९४२ भगवान के समक्ष दोनों हाथ जोड़कर खड़े होकर णमोकार मंत्र पढ़ें पुन: भगवान की तीन प्रदक्षिणा दें। बंधी मुट्ठी से अंगूठा भीतर करके चावल के पाँच पुंज भगवान के समक्ष चढ़ाकर अरिंहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय व साधु बोलें पुन: कोई विनती पढ़कर दर्शन करना चाहिए।
प्रश्न-९४३ भगवान के सामने कितने पुंज चढ़ाने चाहिए?
उत्तर-९४३ भगवान के सामने अरिहंत, सिद्ध, आचार्य उपाध्याय, साधु बोलकर क्रम से पुंज चढ़ावें।
प्रश्न-९४४ सरस्वती अर्थात् जिनवाणी के सामने कितने पुंज चढ़ाना चाहिए?
उत्तर-९४४ सरस्वती अर्थात् जिनवाणी के सामने प्रथमं करणं चरणं द्रव्यं नम: बोलकर ….. ऐसे चार पुंज चढ़ावें।
प्रश्न-९४५ गुरु के दर्शन करते समय कितने पुंज चढ़ाने चाहिए?
उत्तर-९४५गुरु के दर्शन करते समय … ऐसे तीन पुंज सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र बोलकर चढ़ावें।
प्रश्न-९४६ गंधोदक लेते समय क्या मंत्र बोलना चाहिए?
उत्तर-९४६ गंधोदक लेने का मंत्र— निर्मल से निर्मिल अति, अधनाशक सुखसीर। बंदू जिन अभिषेक कृत, यह गंधोदक नीर।।
प्रश्न-९४७ अणुव्रत किसे कहते हैं? इनके नाम बताओ?
उत्तर-९४७ हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँचों पापों के अणु अर्थात् एक देश त्याग को अणुव्रत कहते हैं।
प्रश्न-९४८ अहिंसाणुव्रत का लक्षण बताओ इसमें किसने प्रसिद्ध प्राप्त की?
उत्तर-९४८ मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना से संकल्पपूर्वक (इरादापूर्वक) किसी क्रम जीव को नहीं मारना अहिंसा अणुव्रत है इसमें यमपाल चाण्डल ने प्रसिद्धि प्राप्त की।
प्रश्न-९४९ सत्याणुव्रत का लक्षण बताओ इसमें कौन प्रसिद्ध हुआ?
उत्तर-९४९ स्वयं स्थूल झूठ न बोले, न दूसरों से बुलवाये और ऐसे सच भी नहीं बोले कि जिससे धर्म आदि पर संकट आ जावे, सो सत्याणुव्रत है इसमें सत्यघोष प्रसिद्ध हुआ। प्रश्न-९५०अचौर्याणुव्रत किसे कहते हैं इस व्रत में किसने प्रसिद्धि प्राप्त की?
उत्तर-९५० किसी का रखा हुआ, पड़ा हुआ, भूला हुआ अथवा बिना दिया हुआ धन पैसा आदि द्रव्य नहीं लेना और न उठाकर किसी को देना अचौर्यणुव्रत कहलाता है इसमें वारिषेण मुनिराज ने प्रसिद्ध प्राप्त की।
प्रश्न-९५१ब्रह्मचर्याणुव्रत किसे कहते हैं इस व्रत में कौन प्रसिद्ध हुआ?
उत्तर-९५१अपनी विवाहित स्त्री के सिवाय अन्य स्त्री के साथ कामसेवन नहीं करना ब्रह्मचर्य अणुव्रत कहलाता है। इसमें सती सीता प्रसिद्ध हुईं।
प्रश्न-९५२ परिग्रह पारिमाणव्रत का लक्षण बताओ? इस व्रत में कौन प्रसिद्ध हुए?
उत्तर-९५२ धन, धान्य, मकान आदि वस्तुओं का जीवन भर के लिए परिमाण कर लेना, उससे अधिक की बांछा नहीं करना परिग्रह परिणाम अणुव्रत है इस व्रत में हस्तिनापुर के राजा जयकुमार प्रसिद्ध हुए।
प्रश्न-९५३पंचाणुव्रत पालन करने वालों को नरक गति होती है या नहीं?
उत्तर-९५३ पंचाणुव्रत पालन करने वालों को नरक गति नहीं मिलती, प्रत्युत नियम से स्वर्ग पता है।
प्रश्न-९५४श्रावक के कितने भेद हैं?
उत्तर-९५४ श्रावक के तीन भेद हैं-पाक्षिक, नैष्ठिक व साधक।
प्रश्न-९५५ पाक्षिक श्रावक का लक्षण बताओ?
उत्तर-९५५ जिसके हिंसादि पाँचों पापों का त्याग रूप व्रत है तथा जो अभ्यास रूप से श्रावक धर्म पालन करता है उसको पाक्षिक श्रावक या प्रारूध देससंयमी कहते हैं।
प्रश्न-९५६ नैष्ठिक श्रावक किसे कहते हैं?
उत्तर-९५६ जो निरतिचार प्रतिमा रूप से श्रावक धर्म का पालन करता है उसको नैष्ठिक या घटमान देशसंयमी कहते हैं। प्रश्न-९५७पाक्षिक श्रावक सप्त व्यसन में प्रवृत्त होगा या नहीं?
उत्तर-९५७ पाक्षिक श्रावक सप्त व्यसन में प्रवृत्त नहीं होगा। प्रश्न-९५८श्रावक के १२ व्रत कौन से हैं?
उत्तर-९५८ ५ अणुव्रत, ३ गुणव्रत व ४ शिक्षाव्रत ये श्रावक के १२ व्रत हैं।
प्रश्न-९५९ गुणव्रत किसे कहते हैं? उनके कितने भेद हैं?
उत्तर-९५९ जो गुणव्रतों को बढ़ाते हैं अथवा उसमें दृढ़ता या मजबूती लाने वाले होते हैं उन्हें गुणव्रत कहते हैं उसके तीन भेद हैं-दिग्व्रत, अनर्थदण्डव्रत, भोगोपभोगपरिमाणव्रत।
प्रश्न-९६० दिग्व्रत किसे कहते हैं?
उत्तर-९६०लोभ या आरंभ के घटाने के लिए दशों दिशाओं में आने-जाने की मर्यादा जीवन भर के लिए कर लेना दिग्व्रत कहलाता है। जैसे-किसी ने पूर्व दिशा में वंग देश, पश्चिम में सिन्धु नदी, उत्तर में हिमालय और दक्षिण में कन्याकुमारी से आगे जीवन पर्यंत नहीं जाने का नियम कर लिया है।
प्रश्न-९६१अनर्थदण्डव्रत किसे कहते हैं?
उत्तर-९६१ मर्यादा के बाहर भी बिना प्रयोजन ही जिन कार्यों में पाप का आरंभ होता है उन निरर्थक कार्यों का त्याग करना अनर्थ दण्डव्रत कहलाता है।
प्रश्न-९६२ अनर्थदण्डव्रत के भेदों को लक्षण सहित बताओ?
उत्तर-९६२ पापोपदेश—पापवद्र्धक कार्यों का उपदेश देना, हिंसादान-शास्त्र या जहर आदि मांगने से देना, अपध्यान-किसी का बुरा सोचना, दुश्रुति-मिथ्याशास्त्रों का पढ़ना और प्रमादचर्या-बिना कारण पानी आदि गिराना ये अनर्थदण्डव्रत के पाँच भेद हैं।
प्रश्न-९६३ भोगोपभोग परिमाण व्रत किसे कहते हैं?
उत्तर-९६३ दिग्व्रत की मर्यादा के भीतर भी प्रयोजनभूत भोजन, वस्त्र आदि भोग-उपभोग की वस्तुओं का परिमाण करके शेष का जीवन भर के लिए त्याग कर देना भोगोपभोग परिमाणव्रत कहलाता है।
प्रश्न-९६४ भोग और उपभोग में क्या अंतर है?
उत्तर-९६४ जो वस्तु एक बार भोगने में आती है उसे भोग कहते हैं जैसे-भोजन-पान आदि। तथा जो वस्तु बार-बार भोगने में आती है उसे उपभोग कहते हैं जैसे-वस्त्र-आभूषण आदि।
प्रश्न-९६५ शिक्षाव्रत किसे कहते हैं? उसके कितने भेद हैं?
उत्तर-९६५ जिन व्रतों के पालन करने में मुनिव्रत के पालन करने की शिक्षा मिलती है उन्हें शिक्षाव्रत कहते हैं। देशावकाशिक, सामायिक, प्रोषधोपवास और वैयावृत्य।
प्रश्न-९६६ देशावकाशिक व्रत का लक्षण उदाहरण सहित बताओ?
उत्तर-९६६ दिग्व्रत की मर्यादा के भीतर भी दिन, महीना आदि के लिए गली, मुहल्ला, नगर आदि का नियम करके आगे नहीं जाना देशावकाशिक व्रत है। जैसे-किसी ने आष्टान्हिका में अपने मुहल्ले से बाहर नहीं जाने का नियम लिया और उसके आगे नहीं जाएगा तो उसका यह प्रथम शिक्षाव्रत है।
प्रश्न-९६७ सामायिक व्रत की परिभाषा बताओ?
उत्तर-९६७ श्रावक प्रसन्नमना होकर वन में, गृह में अथवा चैत्यालय में पांचों पापों का त्याग करके विधिवत् सामायिक करें, यह कि सामायिक व्रत है।
प्रश्न-९६८ प्रोषध तथा उपवास में कया अंतर है?
उत्तर-९६८ एक बार शुद्ध भोजन करना प्रोषध है तथा चारों प्रकार के आहार को छोड़ना उपवास है।
प्रश्न-९६९वैयावृत्य शिक्षाव्रत का लक्षण उदाहरण सहित बताओ?
उत्तर-९६९ गृहत्यागी तपस्वी मुनियों को अपनी संपत्ति के अनुसार शुद्ध आहार, औषधि, शास्त्रादि-उपकरण और वसतिका का दान देना वैयावृत्य नाम का चौथा शिक्षाव्रत है। जैसे-मुनियों के गुणों में अनुराग करते हुए उनके चरणों को दबाना, उनके ऊपर आई आपत्ति को दूर करना तथा नवधा भक्ति से उन्हें आहारदान देना आदि।
प्रश्न-९७०आहारदान देने से क्या फल मिलता है?
उत्तर-९७० घर में पंचसूना आदि आरंभ से जो पाप संचित होता है वह गृहत्यागी मुनियों के आहारदान से नष्ट हो जाता है।
प्रश्न-९७१ वैयावृत्य शिक्षाव्रत को अन्य ग्रंथों में क्या नाम दिया है?
उत्तर-९७१वैयावृत्य शिक्षाव्रत को अन्य ग्रंथों में अतिथिसंविभाग व्रत का नाम दिया है।
प्रश्न-९७२ क्या सल्लेखना को भी व्रत माना गया है?
उत्तर-९७२ हाँ, श्रावकों के लिए सल्लेखना भी एक व्रत माना गया है।
प्रश्न-९७३ प्रतिमा किसे कहते हैं?
उत्तर-९७३ सम्यग्दर्शन, अणुव्रत, गुणव्रत, शिक्षाव्रत और सल्लेखना इन गुणों को धारण करने वाले श्रावक के ग्यारह पदा या स्थान होते हैं, इन्हें प्रतिमा कहते हैं।
प्रश्न-९७४ग्यारह प्रतिमाओं के नाम बताओ?
उत्तर-९७४१. दर्शन २. व्रत ३. सामायिक ४. प्रोषधोपवास ५. सचित्तत्याग ६. रात्रिभोजन त्याग ७. ब्रह्मचर्य ८. आरंभ त्याग ९. परिग्रह त्याग १०. अनुमति त्याग और ११. उद् दिष्ट त्याग ये ग्यारह प्रतिमाएँ हैं।
प्रश्न-९७५ दर्शन प्रतिमा एवं व्रत प्रतिमा का लक्षण बताओ?
उत्तर-९७५ जो संसार, शरीर, भोगों से विरक्त, शुद्ध सम्यग्दर्शन का धारी, पंच परमेष्ठी के चरणकमलों की शरण ग्रहण करने वाला और सच्चे मार्ग पर चलने वाला है वह दर्शनप्रतिमाधारी कहलाता है वह श्रावक पंच उदुम्बर और व्यसनों का तथा रात्रि में चारों प्रकार के आहार का त्यागी होता है तथा जो शल्यरहित होकर निरतिचार, पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों का पालन करता है वह व्रत प्रतिमाधारी कहलाता है। इस प्रतिमा में सामायिक व्रत में दो समय सामायिक और विधिवत् देव पूजन करना आवश्यक होता है।
प्रश्न-९७६ सामायिक प्रतिमा किसे कहते हैं?
उत्तर-९७६प्रतिदिन प्रात: मध्यान्ह और सायंकाल इन तीनों कालों में कम से कम दो घड़ी तक विधिपूर्वक अतिचाररहित सामायिक करना सामायिक प्रतिमा कहलाती है।
प्रश्न-९७७ चौथी प्रतिमा का नाम बताते हुए उसका लक्षण बताओ?
उत्तर-९७७ चौथी प्रतिमा का नाम प्रोषधोपवास प्रतिमा है। प्रत्येक महीने की दोनों अष्टमी और दोनों चतुर्दशी, ऐसे चार पर्वों में अपनी शक्ति को न छिपाकर धर्मध्यान में लीन होते हुए प्रोषध को अथवा उपवास को अवश्य करना प्रोषध प्रतिमा का लक्षण है।
प्रश्न-९७८ उत्कृष्ट, मध्यम तथा जघन्य प्रोषध का लक्षण बताओ?
उत्तर-९७८ उत्कृष्ट प्रोषध प्रतिमा में सप्तमी और नवमी को एक बार शुद्ध भोजन और अष्टमी को उपवास होता है। जघन्य में अष्टमी को एक बार भोजन होता है। मध्यम में कई भेद हो जाते हैं।
प्रश्न-९७९ सचित्तत्याग प्रतिमा कौन सी प्रतिमा है? लक्षण बताओ?
उत्तर-९७९ कच्चे फल-फूल पीना सचित्तत्याग प्रतिमा कहलाती है।
प्रश्न-९८० छठीं एवं सातवीं प्रतिमा का नाम बताते हुए उसकी परिभाषा बताओ?
उत्तर-९८० छठीं प्रतिमा रात्रि भोजन त्याग प्रतिमा है तथा सातवीं प्रतिमा ब्रह्मचर्य प्रतिमा है। जो दयालु श्रावक रात्रि में अन्न, खाद्य, लेह्य और पेय इन चारों आहारों का त्याग कर देता है वह रात्रि भुक्ति त्यागी छठीं प्रतिमाधारी श्रावक होता है तथा मल का बीज, मल का स्थान, दुर्गंधियुक्त ऐसे इस शरीर का स्वरूप समझकर काम सेवन में पूर्णतया विरक्त होकर स्त्री मात्र का त्याग कर देना अर्थात् पूर्ण ब्रह्मचर्य ग्रहण कर लेना ब्रह्मचर्य प्रतिमा है।

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